Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड
रोती हुई केसरीमलजी के सदन में आईं। केसरीमलजी वेदनीय कर्म समता से कागा सुराणा ने कहा-अगर आपको ज्यादा दुःख है तो आप एक बार श्रावक केसरीमलजी अचानक बीमार हो सभी बहनें आज उपवास पचक्ख लें। सारी बहनें चली गये । सभी लोग चिन्तित हो गये । पर उनके मुह से कभी गई। इस घटना-प्रसंग से साक्षात् राजा मोहजित का हाय या उफ् शब्द नहीं निकला। किसी के पूछने पर यही उदाहरण जीवित हो जाता है । आँगन में प्रिय बहन का कहते कि भाई ! वेदनीय कर्म के बन्धन हैं। मैंने बाँधे हैं, निर्जीव शरीर रखा हुआ है और आपने सामायिक ले ली। तो मुझे ही काटने होंगे। समता से काटूगा तो और नये साम्ययोग का ऐसा सुन्दर उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है। कर्म नहीं बंधेगे। केसरीमलजी का आत्मबल, मनोबल, संयोग और वियोग सदा जीवन के साथ रहते हैं। इसमें संकल्प व श्रद्धा बहुत ही दृढ़ है जिसके कारण शीघ्र ही फूलना और मुझना भूल है। केसरीमलजी सुराणा ने स्वस्थ हो गये। अस्वस्थ अवस्था में भी सामायिक, प्रतिबहन की याद में छ. मास का एकांतर तप किया और क्रमण, जप, स्वाध्याय आदि अनुष्ठान में बहुत ही सावधान पारणे में पांच द्रव्यों से अधिक का प्रयोग नहीं करते। एवं जागृत रहते हैं । ऐसे साधनाशील श्रावकों के जीवनवृत्त
0 प्रेरक एवं उपादेय हैं ।
अरे ! ये तो साधु हैं - साध्वी श्री सिरेकुमारी (सरदारशहर)
"मनस्येक वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्" मन, वचन और कर्म में सामंजस्य होना साधु पुरुष का सूचक है। जीवन-साधक श्रावक केसरीमलजी ने इस सूक्ति को अपने जीवन में यथाशक्य ढालने का प्रयत्न किया है।
एक बार की घटना है श्रावक श्री केसरीमलजी सुराणा बैंगलौर जा रहे थे। रास्ते में चित्तलदुर्ग में महाराष्ट्र और आन्ध्र प्रदेश का प्रान्तीय आन्दोलन चल रहा था। सुराणा साहब की मोटर पर नम्बर महाराष्ट्र के
थे। तत्काल विद्यार्थियों ने घेर लिया। श्रावक केसरीमल जी सुराणा नीचे उतरे । उतरते ही उनकी वेषभूषा को देखकर विद्यार्थियों ने कहा-अरे ! ये तो साध लोग हैं। इनको कुछ नहीं कहना है। इन्हें रोको मत, जाने दो।
वास्तव में केसरीमलजी अन्तर में साधु और वेषभषा से भी साधु प्रतीत होते हैं। समीप क्षेत्रों में रहने वाले आबाल-वृद्ध सभी काकासा या साधु पुरुष कहते हैं।
नानकशाही डण्डा हाथ में ले लो
0 साध्वीश्री अशोकश्री एक बार ये संस्था संचालन हित चन्दा लेने सरदार- युक्त हैं। अतः मैं आपको एक नया पैसा क्या एक कौड़ी शहर में एक गणमान्य सज्जन के यहाँ पहुँचे। उन्हें देखते भी नहीं दूंगा । इस प्रकार पौन घण्टे तक अण्ट-सण्ट ही उनका खून खौल उठा, भौहें तन गई, आँखों में चाहे जैसे वे बोलते रहे। पर आचारांग सूत्र का वह लाली और वाणी मुखरित हो गई। विवेक सो गया मधुर वाक्य स्मृति पटल उभर आता है कि-"अस्थि और क्रोध का काला नाग जाग उठा। तड़कते-भड़कते सत्येण परंपरं नत्थि असत्येण परंपर" अर्थात् शस्त्र से से बोले कि आपके हाथ में झोली तो है ही एक नानक- शस्त्र परम्परा चलती है पर अशस्त्र से शस्त्र की परम्परा शाही हंडा और ले लें ताकि आपका जीवन स्वरूप और नहीं चलती। जब आप अमृत की प्यालीवत् उन गालियों अधिक निखर उठे। भिक्षु स्वामी ने तो भवन-निर्माण में को पीते गये, तब उनकी वाचाल वाणी हतप्रभ सी होकर एकान्त पाप बताया है और आपकी समस्त प्रवृत्तियाँ पाप- मौन हो गई । आँखें शर्मा गईं और मस्तक झुक गया।
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