Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड
कभी पीछे से, पाठ और अर्थ पूछा । वह तो नया ही था, मैं पास बैठा मन ही मन उस बच्चे के साहस की पर वर्षों से पुराना पढ़ा हुआ हो तो भी चूक सकता था। सराहना कर रहा था, वहां यह चिन्तन भी चल रहा थापर वह शत-प्रतिशत सफल रहा। केसरीमलजी बहुत निरीक्षक, परीक्षक और समीक्षक भले ही ऊपर से बादाम प्रसन्न हुए, उसे घड़ी इनाम में दी। घड़ी के अतिरिक्त की तरह कठोर दीखते हो, पर लेने वाला उस कठोरता भी उसने पुरस्कार प्राप्त किया।
को भेद कर भी सही वस्तु प्राप्त कर ही लेता है ।
वृथा आपको दोषी क्यों बनाऊँ?
श्री पुखराज पुरोहित, राणावास मुझे राणावास में आज दूसरा दिन था। अकस्मात आ रहा हूँ, वृथा आपके वाहन का उपयोग करके आपको प्रधानाध्यापकजी ने मेरे हाथ में एक फाइल थमाते हुए दोषी क्यों बनाऊं?' अधिकारो ने निरुत्तर हो चालक आज्ञा दी-आज दो बजे सुमति शिक्षा सदन में स्कूल से गाड़ी आगे बढ़ाने का इशारा किया । कम्पलेक्स की बैठक है, मैं कार्य में व्यस्त हूँ, आप ही हो
विद्यालय पहुँचकर मेरे आश्चर्य की सीमा न रही आइये । मैं फाईल लेकर चौराहे तक आया और सोचने
कि जिन महापुरुष से मैंने विद्यालय का मार्ग पूछा और लगा अब किधर मुड़ इतन म पाछ घूमकर रखता जो पहिले मिलन में ही एक मुश जैसे साधारण अध्यापक तो सफेद चादर ओढ़े हुए, नीची पर सजग दृष्टि किये हुए हा
के साथ इतने स्नेह से बात करते आ रहे थे, वे ही इस एक महापुरुष मेरी ओर ही आ रहे हैं । मैं अपरिचित ।
विद्यानगरी की आधारशिला हैं और वहाँ जुड़ी सारी सभा अवस्था में ही अभिवादन करते हुए, पूछ बैठा, श्रीमान
इन्हीं महापुरुष की सभापति के रूप में प्रतीक्षा कर रही जी ! समति शिक्षा सदन जाने के लिये किस ओर जाना थी। मैं जाकर
थी। मैं जाकर यथास्थान पर बैठ गया परन्तु मुझे एकदम होगा? महापुरुष ने मुझे सन्निकट बुलाते हुए बड़े प्रेम से ईश्वरचन्द विद्य
ईश्वरचन्द विद्यासागर वाली कहानी स्मरण हो आई। कहा-आइये, मैं वहीं जा रहा हूँ।
साथ ही उनके ये शब्द 'वृथा आपके वाहन का उपयोग राह में आपने स्नेहवश मुझ से वार्तालाप का श्रीगणेश करके आपको दोषी क्यों बनाऊ ?' अब भी मेरे कानों में किया ही था कि सरसर्राहट करती हुई एक जीप गाड़ी गूंजते रहते हैं और सोचता हूँ कि काश ! यह भावना हमारे पास आकर एकदम रुकी । उस में एक अधिकारी, जो हमारे आज के सारे अधिकारी वर्ग में हो जावे तो उन्हें आगे ही विराजमान थे बोल उठे 'पधारिए, विद्यालय नाहक युवा पीढ़ी द्वारा 'धेराव' का शिकार न होना तक', महापुरुष ने सविनय उत्तर दिया 'नहीं, श्रीमान्जी! पड़े। आप पधारो, मैं तो मास्टर साहिब से बात करता हुआ
00 मुझे लठ मारो
साध्वीश्री चांवकवर (मोमासर) कुछ वर्षों पूर्व की बात है परम श्रद्वय आचार्यश्री के पर नहीं थे। मध्याह्न के समय जब वे घर लौटे और उन्हें निर्देशानुसार मैं राणावास प्रवास कर रही थी। उन दिनों स्थिति का पता चला तो वे बिना कुछ कहे उस व्यक्ति के वहाँ के विद्यालय का एक कर्मचारी नशे में धुत्त होकर सामने जाकर खड़े हो गये और बोले-भाई ! क्या चाहता और हाथ में एक बड़ी सी लाठी लेकर केसरीमलजी सुराणा है, मुझे मारना? लो यह सिर तुम्हारे सामने है, तुम के निवास वाली गली में इधर-उधर घूम रहा था एवं मुह चाहो जैसे लठ मारो, किन्तु यह याद रखो जब तक तुम से अनर्गल प्रलाप कर रहा था। वह कह रहा था कि अपनी आदत नहीं बदलोगे, तुम्हें यहाँ से कुछ नहीं मिलने कहां पर हैं केसरीमलजी ? कहां हैं मंत्रीजी? आज मैं का। केसरीमलजी की ऐसी बातें सुनकर वह बिना बोले इस लाठी से उनका सिर फोड़ दूंगा । नशे से युक्त उस ही वहाँ से चल दिया। मैं सोचती रही, आखिर केसरीमल व्यक्ति की ऐसी बातें सुनकर सब घबराने लगे कि पता जी में ऐसा क्या जादू है जो उनके सामने आते ही सब नहीं यह आज क्या कर बैटेगा? उस समय सुराणाजी घर शान्त हो जाते हैं।
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