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भरतेश वैभव
अनुभव किया है, उसकी यह लीला है । अन्तरंग में एक प्रकार और बाह्यमें अन्यरूप रहनेपर भी आत्मकल्याणका साधक होनेसे वह मायाचार नहीं है ।
कभी तो वह किले के समान बनता है और कभी ग्रामके समान वन जाता है । कभी वह फूलके बगीचेके समान रहता है। जिस समय उन स्त्रियोंको संसर्गसुत्रका अनुभव कराता है उस समय उनको ऐसा मालूम होता है कि कहीं स्वर्गही पुरुषके रूपमें आया है।
जिस प्रकार कोई करुण मनुष्यों
ने
वार्तालाप विनोद आदि करता है, परन्तु वह कुछ ही समयके लिए हुआ करता है, इसी प्रकार वह आत्मज्ञानी उन रमणियोंके साथ विनोद परिहास आदि करता रहता है। फिर भी उसके मनमें भिन्न ही विचार रहता है । वह अपने आपको नहीं भूलता है ।
जैसे नगरवासी चतुर लोग ग्रामीणोंके साथ अनेक प्रकार विनोद 'हुए कहीं जा रहे हों उसी प्रकार मोक्षको जानेवाले इस पथिककी मार्गमें यह अनेक प्रकारसे मोहलीला है ।
करते
बाहरसे जो लोग उसका व्यवहार देखते हैं, उनको ज्ञात होता है कि यह नीतिमा नहीं है । यह मार्गच्युत हुआ है । परन्तु वस्तुतः वह सन्मार्ग में ही रहता है। आत्मज्ञानीकी गति बहुत विचित्र है। उसके मनकी बात कौन जान सकता है ? उसके हृदयको जिनेंद्र भगवान् ही जानने में समर्थ हैं ।
बड़े-बड़े साँड़, हाथी आदि जिस मार्गसे जाते हैं वहाँ उनके पांवों के चिह्नको हरएक जान सकता है, परन्तु हवाके भी पाद-चिह्न को कोई पहचान सकता है क्या ? नहीं। इसी प्रकार सामान्य मनुष्यों की चितप्रवृत्तिको जान सकनेपर भी तत्वशील विवेकीके हृदयको जानना साधारण बात नहीं है ।
वे गायकियाँ कहने लगीं कि यह हमारे भरतचक्रवर्ती की दिनचर्या है । यह बात अन्यत्र नहीं पाई जायगी । भरतेश में भी इस प्रकार की प्रवृत्तिकी प्राप्ति क्यों हुई है ? उन्होंने पूर्वजन्ममें जो मनःपूर्वक आत्मभावना की उसका यह फल है । इसीलिये वे आज आदर्श महापुरुष कहलाते हैं ।
उपर्युक्त विषयको सुनकर भरतेशको बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने उसी समय उनको पाम में बुलाकर अनेक प्रकारके दिव्य वस्त्र आभरण आदि देकर उनका सत्कार किया ।