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| चित्र परिचय १०
Illustration No. 10 २४ दण्डकों की आयुस्थिति (१) नारकों की आयुस्थिति
ससार के सभी जीवो को २४ दण्डको (स्थानों) मे विभक्त किया गया है।
जीव दो प्रकार के हैं-अपर्याप्त और पर्याप्त। सभी अपर्याप्त जीवो की आयुस्थिति जघन्य-उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। पर्याप्त जीवो की स्थिति भिन्न-भिन्न प्रकार की है। सातो नरक भूमियो की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त न्यून दस हजार वर्ष तथा उत्कृष्ट प्रत्येक नरक की भिन्न-भिन्न है। प्रथम नरक की 9 अन्तर्मुहूर्त न्यून एक सागरोपम तथा सातवी नरक भूमि की तेतीस सागरोपम बताई है।
-सूत्र ३८३, पृष्ठ १७३ भवनपतिदेवों की स्थिति ___ भवनपतिदेवो के असुरकुमार आदि दस भेद हैं। इसलिए इनके दस दण्डक हैं। सभी की आयुस्थिति जघन्य दस हजार वर्ष तथा उत्कृष्ट कुछ अधिक एक सागरोपम है।
पृथ्वीकायिक आदि पॉच स्थावर (दण्डक १२-१६) तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तीन * विकलेन्द्रियों (दण्डक १७-१९) की आयुस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट चित्र में नीचे बताये अनुसार समझे।
-सूत्र ३८४-३८६, पृष्ठ १७५-१८५ LIFE-SPAN IN 24 DANDAKS (1) LIFE-SPAN OF INFERNAL-BEINGS
All the beings in this universe have been divided into 24 Dandaks (places of suffering)
Beings are basically of two kinds-under-developed and fully developed The minimum and maximum life-span of all under-developed beings is antarmuhurt (less than a muhurt of 48 minutes). The life-span of fully developed beings varies The minimum life-span for all the seven hells is one antarmuhurt less ten thousand years. The maximum lifespan varies; that for the first hell is antarmuhurt less one Sagaropam and that for the seventh hell is thirty three Sagaropam.
-Aphorism 383, p 173 LIFE-SPAN OF MANSION-DWELLING GODS
There are ten kinds of mansion-dwelling gods including Asur Kumar. Therefore, these form ten Dandaks. The minimum life-span for all these is ten thousand years and maximum is a little more than one Sagaropam.
The minimum life-span of five immobiles including earth-bodied (Dandak 12-16) and three Vikalendriyas, i.e., two, three and four-sensed beings (Dandak 17-19) is antarmuhurt and maximum is as mentioned in the illustrations.
-Aphorisms 384-386, pp 175-185
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