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षोडशिका आत्मसमवतार से आत्मभाव में समवतीर्ण होती है और तदुभयसमवतार की अपेक्षा अष्टभागिका में भी तथा अपने निजरूप में भी रहती है।
अष्टभागिका आत्मसमवतार की अपेक्षा आत्मभाव में तथा तदुभयसमवतार की अपेक्षा चतुर्भागिका में भी समवतरित होती है और अपने निज स्वरूप में भी समवतरित होती है।
आत्मसमवतार की अपेक्षा चतुर्भागिका आत्मभाव में और तदुभयसमवतार से अर्धमानिका में समवतीर्ण होती है एवं आत्मभाव में भी। ___ आत्मसमवतार से अर्धमानिका आत्मभाव में एवं तदुभयसमवतार की अपेक्षा मानिका
आत्मभाव में भी समवतरित होती है। ___ यह ज्ञायकशरीर-भव्यशरीर-व्यतिरिक्तद्रव्यसमवतार का वर्णन है। इस तरह नोआगमतःद्रव्यसमवतार और द्रव्यसमवतार की प्ररूपणा पूर्ण हुई।
विवेचन-(चतुःषष्टिका आदि का विवरण सूत्र ३२१ में रसमान प्रमाण-प्रकरण में देखें।)
माणी, अर्धमाणी, चतुर्भागिका आदि उस समय मगध देश के प्रचलित माप हैं। यहाँ इस कथन का तात्पर्य यह है कि चतुष्पष्टिका (चार पल) का कोई मान या वस्तु अपने से बडी द्वात्रिंशिका आठ पल की वस्तु में समाहित हो जाती है। माणी आदि तो मात्र एक उदाहरण है, समवतार का क्षेत्र बहुत व्यापक है। इसका उपयोग तत्त्वज्ञान तथा व्यवहार के प्रत्येक क्षेत्र में उपयुक्त स्थान पर किया जा सकता है।
(2) Also, Jnayak sharir-bhavya sharir vyatırikta dravya samavatar (physical-assimilation other than the body of the knower and the body of the potential knower) is of two types-(1) Atmasamavatar (self-dependent assimilation), (2) Tadubhayasamavatar (assimilation dependent on self and others both). For example
According to Atmasamavatar (self-dependent assimilation) a chatushshashtika (measurement of weight equal to one sixtyfourth part of a manı or four pals) is assimilated in its own state and according to Tadubhayasamavatar (assimilation dependent on self and others both) in a dvatrinshika (measurement of weight equal to one thirty second part of a manı or eight pals) as well as its own state.
According to Atmasamavatar (self-dependent assimilation) a dvatrinshika (measurement of weight equal to one thirty second part of a manı or eight pals) is assimilated in its own state and
वक्तव्यता-प्रकरण
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The Discussion on Vaktavyata
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