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कोहे माणे माया लोभे रागे य मोहणिज्जे य।
पगडी भावे जीवे जीवत्थिय सबदव्या य॥१॥ से तं भावसमोयारे। से तं समोयारे। से तं उवक्कमे।
॥ प्रथम उपक्रमद्वार सम्मत्तं ॥ ___ ५३३. (प्र.) भावसमवतार क्या है ?
(उ.) भावसमवतार दो प्रकार का है। यथा-(१) आत्मसमवतार, और (२) तदुभयसमवतार।
___ आत्मसमवतार की अपेक्षा क्रोध निजभाव में रहता है और तदुभयसमवतार से मान 2 में और निजभाव में भी समवतरित होता है। इसी प्रकार (१) मान, (२) माया, (३) लोभ,
(४) राग, (५) मोहनीय, और (६) अष्टकर्म प्रकृतियाँ आत्मसमवतार की अपेक्षा से आत्मभाव में तथा तदुभयसमवतार की अपेक्षा छह प्रकार के भावों में और आत्मभाव में भी रहती हैं। ___ इसी प्रकार (औदयिक आदि) छह भाव जीव, जीवास्तिकाय, आत्मसमवतार की अपेक्षा निजभाव में रहते हैं और तदुभयसमवतार की अपेक्षा द्रव्यों में और आत्मभाव में भी रहते हैं। इनकी संग्रहणी गाथा इस प्रकार है
__क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, मोहनीयकर्म, (कर्म) प्रकृति, भाव, जीव, जीवास्तिकाय " और सर्वद्रव्य (आत्मसमवतार से अपने-अपने स्वरूप में और तदुभयसमवतार से पररूप
और स्व-स्वरूप में भी रहते हैं) ॥१॥ ___ यही भावसमवतार है। इसका वर्णन होने पर समवतार और उपक्रम नाम के प्रथम द्वार की वक्तव्यता समाप्त हुई।
विवेचन-क्रोध कषाय आदि जीव के वैभाविक भावों के तथा ज्ञानादि स्वाभाविक भावो के समवतार को भावसमवतार कहते हैं। इसके भी आत्मसमवतार और तदुभयसमवतार ये दो प्रकार हैं। आशय यह है कि क्रोधादि औदयिकभाव रूप होने से उनका भावसमवतार मे ग्रहण किया है, अहंकार के बिना क्रोध उत्पन्न नहीं होता है, इसलिए उभयसमवतार की अपेक्षा क्रोध का मान में और अपने निजरूप में समवतार कहा है और आत्मसमवतार की अपेक्षा अपने निजरूप में ही समवतार बताया है। मान का माया में और निजरूप में भी, और आत्मसमवतार की अपेक्षा अपने निजरूप में ही समवतार बताया है। इसी प्रकार माया, लोभ, राग, मोहनीयकर्म, अष्टकर्मप्रकृति आदि जीव का उभयसमवतार एवं आत्मसमवतार समझ लेना चाहिए।
वक्तव्यता-प्रकरण
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The Discussion on Vaktavyata
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