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श्रमण की बारह उपमायें (स) उरग-गिरि-जलण-सागर-नहतल-तरुगणसमो य जो होइ।
भमर-मिग-धरणि-जलरुह-रवि-पवणसमो य सो समणो॥७॥ (स) जो (श्रमण) सर्प, गिरि, अग्नि, सागर, आकाश-तल, वृक्षसमूह, भ्रमर, मृग, पृथ्वी, कमल, सूर्य और पवन के समान है, वही समण है॥७॥
विवेचन-श्रमण का आचार भी विचारों के समान होता है, इस तथ्य का गाथोक्त उपमाओं द्वारा स्पष्टीकरण किया है।
श्रमण के लिए प्रयुक्त उपमाएँ-समण (श्रमण) के लिए प्रयुक्त उपमाओ के साथ समानता के अर्थ में 'सम' शब्द जोडकर उनका भाव इस प्रकार जानना चाहिए
(१) उरग (सर्प) सम-सर्प स्वयं घर नही बनाता, दूसरो के बनाये हुए बिल में रहता है, इसी प्रकार अपना घर नही होने से परकृत गृह में निवास करने के कारण साधु को उरग की उपमा दी है।
(२) गिरिसम-परीषहो और उपसर्गों को सहन करने में पर्वत के समान अडोल-अविचल होने से साधु गिरिसम है।
(३) ज्वलन (अग्नि) सम-तपोजन्य तेज से समन्वित होने के कारण साधु अग्निसम है।
(४) सागरसम-जैसे सागर अपनी मर्यादा को नहीं तोड़ता, इसी प्रकार साधु भी अपनी आचारमर्यादा का उल्लंघन नही करता। अथवा समुद्र जैसे रत्नों का भण्डार होता है, वैसे ही साधु भी ज्ञानादि रत्नो का भण्डार होने से सागरसम है।
(५) नभस्तलसम-जैसे आकाश सर्वत्र अवलबन से रहित है, उसी प्रकार साधु भी किसी प्रसग पर दूसरों का आश्रय-अवलंबन-सहारा नही लेते।
(६) तरुगणसम-जैसे वृक्ष, उसको सींचने वाले पर राग और काटने वाले पर द्वेष नहीं करते इसी प्रकार साधु भी निन्दा-प्रशंसा, मान-अपमान में समवृत्ति वाले होते है।
(७) भ्रमरसम-जैसे भ्रमर अनेक पुष्पो से थोडा-थोडा रस लेकर अपनी उदरपूर्ति करता है, उसी प्रकार साधु भी अनेक घरो से थोडा-थोडा-सा आहार ग्रहण करके उदर भर लेते है।
(८) मृगसम-जैसे मृग हिसक पशुओ, शिकारियो आदि से सदा चौकन्ना रहता है, उसी प्रकार साधु भी संसारभय से सदा उद्विग्न और पापो से सावधान रहने के कारण मृगसम हैं।
(९) धरणिसम-पृथ्वी जैसे सब कुछ सहन करती है, इसी प्रकार साधु भी कष्ट, तिरस्कार, ताडना आदि को समभाव से सहन करने वाले होते हैं।
(१०) जलरुहसम-जैसे कमल पक-(कीचड) में पैदा होकर भी उससे निर्लिप्त रहता है, उसी प्रकार साधु भी कामभोगमय संसार मे रहते हुए भी उससे अलिप्त रहते हैं। ॐ सचित्र अनुयोगद्वार सूत्र-२
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Illustrated Anuyogadvar Sutra-2
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