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(३) तीनों शब्दनय (शब्दनय, समभिरूढ़नय, एवंभूतनय) एक स्वसमयवक्तव्यता को ही मान्य करते हैं। उनके मतानुसार परसमयवक्तव्यता वास्तविक नहीं है। क्योंकि परसमय अनर्थ, अहेतु, असद्भाव, अक्रिया (निष्क्रिय), उन्मार्ग, अनुपदेश (कु-उपदेश) और मिथ्यादर्शन रूप है। इसलिए स्वसमय की वक्तव्यता है किन्तु परसमयवक्तव्यता नहीं है और न स्वसमय-परसमयवक्तव्यता ही है।
यह वक्तव्यताविषयक निरूपण हुआ। ___ विवेचन-पूर्वोक्त तीन वक्तव्यताओं में से कौन नय किसको अंगीकार करता है, इस सूत्र में इनका स्पष्टीकरण है। __नयदृष्टियॉ लोकव्यवहार से लेकर वस्तु के अपने स्वरूप रूप तक का विचार करती हैं। इसी अपेक्षा यहाँ वक्तव्यताविषयक नयों का मतव्य स्पष्ट किया गया है।
सातों नयों में से अनेक प्रकार से वस्तु का प्रतिपादन करने वाले नैगमनय, समुच्चय अर्थ के सग्राहक संग्रहनय और लोकव्यवहार के अनुसार व्यवहार करने मे तत्पर व्यवहारनय की मान्यता है कि लोक में इसी प्रकार की रूढि-परम्परा प्रचलित होने से तीनों ही-स्व, पर और उभय समय की वक्तव्यताएँ मानने योग्य हैं। ___ऋजुसूत्र वर्तमान पर्याय को ग्रहण करता है। यह प्रथम दो वक्तव्यता को स्वीकार करता है। चूंकि वर्तमान क्षण में केवल स्वसमय का प्रतिपादन होगा या केवल परसमय का; दोनो का एक साथ कथन नहीं हो सकता। उभयसमयवक्तव्यता के प्रसंग में स्वसमय सम्बन्धी बाते प्रथम भेद मे आ जाती हैं और परसमय सम्बन्धी द्वितीय भेद में। इसलिए वक्तव्यता तीन प्रकार की नहीं होती।
तीन शब्दनय (शब्द, समभिरूढ व एवभूत) विशुद्धतर हैं। ये केवल स्वसमयवक्तव्यता को स्वीकार करते हैं। परसमय की अस्वीकृति के पक्ष में निम्न सात हेतु दिये जाते हैं
(१) अनर्थ-स्वसमय के अनुसार आत्मा है। परसमय कहता है-"नास्त्येव आत्मा।" “आत्मा नहीं है।' यह प्रतिपादित करने के कारण परसमय अनर्थ है, विसंगति है। क्योंकि प्रतिषेध करने वाला स्वयं ही तो आत्मा है।
(२) अहेतु-आत्मा के अस्तित्व का निषेध करने के लिए हेतु दिया जाता है- "अत्यन्तानुपलब्धः।" -आत्मा नहीं है, क्योकि वह दिखाई नहीं देता। यह हेतु नही हेत्वाभास है। आत्मा का गुण है ज्ञान। ज्ञान प्रत्यक्ष है। अतः आत्मा का नास्तित्व प्रमाणित करने वाला हेतु वास्तव में अहेतु है।
(३) असद्भाव-जो सुकृत, दुष्कृत, परलोक आदि को अस्वीकार करता है।
(४) अक्रिया-जो दर्शन एकान्त शून्यता का प्रतिपादक होने के कारण क्रिया करने वाले का प्रतिषेध करता है। क्रिया करने वाले (कर्ता-आत्मा) के अभाव में क्रिया की संगति भी नहीं हो सकती है।
वक्तव्यता-प्रकरण
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The Discussion on Vaktavyata
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