________________
read just as the general statement regarding mukta audarik sharıras (abandoned gross physical bodies).
(३) मणूसाणं भंते ! केवइया आहारयसरीरा पन्नत्ता ? ___ गो. ! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया या तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ,
ते णं सिय अत्थि सिय नत्थि, जइ अत्थि जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं सहस्सपुहत्तं। मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालिया।
(३) (प्र.) भगवन् ! मनुष्यों के आहारकशरीर कितने कहे गये हैं ?
(उ.) गौतम ! वे दो प्रकार के कहे हैं। यथा-बद्ध और मुक्त। उनमें से बद्ध तो कदाचित् । होते हैं और कदाचित् नहीं भी होते है। जब होते है तब जघन्य एक, दो या तीन और २. उत्कृष्ट सहस्रपृथक्त्व होते हैं। मुक्त आहारकशरीर औधिक मुक्त औदारिकशरीरों के बराबर जानना चाहिए।
(3) (Q.) Bhante ! How many kinds of aharak sharurastra (telemigratory bodies) the human beings are said to have ?
(Ans.) Gautam ! Their aharak shariras (telemigratory bodies) are of two kinds-baddh (bound) and mukta (abandoned). Of these, the baddh aharak sharıras (bound telemigratory bodies) may and may not exist. Where they exist their minimum number is one, two or three and maximum is two thousand to nine thousand (sahasra prithakatua). As regards the mukta (abandoned by soul) it should be read just as the general statement regarding mukta audarik shariras (abandoned gross physical bodies).
विवेचन-मनुष्य मुख्य रूप से औदारिकशरीरधारी है। अतः उनके विषय मे तनिक विस्तार इस प्रकार है__मनुष्यो के बद्ध औदारिकशरीर कदाचित् सख्यात, कदाचित् असंख्यात होते है। इसका कारण यह है कि मनुष्य दो प्रकार के है-गर्भज और समूर्छिम। इनमे से गर्भज मनुष्य तो सदैव होते है किन्तु संमूर्छिम मनुष्य कभी होते है और कभी नही होते है। उनकी उत्कृष्ट आयु भी अतर्मुहूर्त की होती है
और उत्पत्ति का विरहकाल उत्कृष्ट चौबीस मुहूर्त प्रमाण कहा गया है। अतएव जब सम्मूर्छिम मनुष्य नही होते और केवल गर्भज मनुष्य ही होते है, तब वे संख्यात होते है। इसी अपेक्षा से उस समय बद्ध
औदारिकशरीर संख्यात कहे हैं। जब सम्मूर्छिम मनुष्य होते है तब समुच्चय मनुष्य असख्यात हो जाते a है। क्योंकि संमूर्छिम मनुष्यो का प्रमाण अधिक से अधिक श्रेणी के असख्यातवे भाग मे स्थित - सचित्र अनुयोगद्वार सूत्र-२
Illustrated Anuyogadvar Sutra-2 ONOMMONTRIPPISORPOTO
(258)
MGOAVOM
"
*
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org