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४७०. अथवा आगम तीन प्रकार का है। जैसे - ( १ ) सूत्रागम, (२) अर्थागम, और (३) तदुभयागम।
अथवा (लोकोत्तरिक) आगम तीन प्रकार का है। यथा - ( १ ) आत्मागम, (२) अनन्तरागम, और ( ३ ) परम्परागम ।
अर्थागम (अर्थरूप शास्त्र) तीर्थंकरों के लिए आत्मागम है। सूत्र का ज्ञान गणधरों के लिए आत्मागम और अर्थ का ज्ञान अनन्तरागम है । गणधरों के शिष्यों के लिए सूत्रज्ञान अनन्तरागम और अर्थ का ज्ञान परम्परागम है । उसके बाद सूत्र और अर्थरूप आगम आत्मागम भी नहीं है, अनन्तरागम भी नहीं है, किन्तु परम्परागम है । यह लोकोत्तर आगम का स्वरूप है।
विवेचन - आगमप्रमाण के सम्बन्ध में जैन न्याय ग्रन्थो में बहुत ही विस्तारपूर्वक चर्चा मिलती है। आगम की जो भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ की गई है, उनमें वृत्तिकार मलयगिरि द्वारा की गई परिभाषा इस प्रकार है
( १ ) " गुरु पारम्पर्येण आगच्छतीति आगमः । " - जो गुरु (आचार्य) परम्परा से चला आ रहा है, वह आगम है।
(२) " आ समन्ताद् गम्यते ज्ञायते जीवादयः पदार्था अनेनैति वा आगमः ।" - जिससे जीवादि पदार्थ भलीभाँति जाने जाते हैं, वह आगम है।
जैन दार्शनिकों के अनुसार आगम की परिभाषा इस प्रकार है - "आप्तवचनादाविर्भूतमर्थसंवेदनमागमः ।” (न्यायदीपिका) आप्त (सर्वज्ञ) वचनो से प्राप्त होने वाला अर्थ ज्ञान आगम है।
लौकिक एवं लोकोत्तर आगम की चर्चा इसी शास्त्र के भाग १, सूत्र ४७ से ४९ मे तथा नन्दीसूत्र के श्रुतज्ञान प्रकरण में की जा चुकी है। यहाॅ लोकोत्तर आगम के दो प्रकार से तीन-तीन भेद बताये है।
वचन रचना को सूत्रागम, सम्यग् ज्ञान रूप अर्थ (भाव) को अर्थागम और जिसमे शब्द और अर्थ दोनो का ज्ञान हो, वह तदुभयागम है अथवा जिसमे सूत्र और अर्थ - व्याख्या दोनो एक साथ संकलित हो, वह तदुभयागम है।
तीर्थकर देव अर्थरूप मे ज्ञान देते है अतः वे अर्थागम के कर्त्ता है । सुधर्मादि गणधर उन वचनो को सूत्ररूप मे निबद्ध करते हैं अतः वे सूत्रागम के कर्त्ता है। जैसा कि आचार्य भद्रबाहु का कथन है"अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथति गणहरा निउणा ।"
"गुरु- मुख से आगम का पाठ व अर्थ का ज्ञान लेने वालो के लिए वह तदुभयागम है।"
दूसरी दृष्टि से आगम के तीन भेद इस प्रकार है
आत्मागम - गुरु आदि के उपदेश के बिना अपने आप ही आत्मा मे अर्थ ज्ञान प्रकट होना । जैसे तीर्थकर, स्वयबुद्ध आदि को केवलज्ञान की प्राप्ति होती है अर्थात् स्वय बोध होना आत्मागम है।
आगमप्रमाण- प्रकरण
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The Discussion on Agam Pramana
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