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आराधना में लीन रहता है। विनीत व्यक्ति अपने सद्गुणों के कारण आदर का पात्र बनता है। विनय ऐसा वशीकरण मंत्र है जिससे सभी सद्गुण खिंचे चले आते हैं। अविनीत व्यक्ति सड़े हुए कानों वाली कुतिया सदृश है, जो दर-दर ठोकरें खाती है, अपमानित होती है। लोग उससे घृणा करते हैं। वैसे ही अविनीत व्यक्ति सदा अपमानित होता है। इस तरह विनय के द्वारा आत्मसंयम तथा शील-सदाचार की भी पावन प्रेरणा दी गई है।
विनय का तृतीय अर्थ नम्रता और सद्व्यवहार है। विनीत व्यक्ति गुरुजनों के समक्ष बहुत ही नम्र होकर रहता है । वह उन्हें नमस्कार करता है तथा अञ्जलिबद्ध होकर तथा कुछ झुककर खड़ा रहता है। उसके प्रत्येक व्यवहार में विवेकयुक्त नम्रता रहती है। वह न गुरुओं के आसन से बहुत दूर बैठता है, न सटकर बैठता है। वह इस मुद्रा में बैठता है जिसमें अहंकार न झलके । वह गुरुओं की आशातना नहीं करता। इस प्रकार वह नम्रतापूर्ण सद्व्यवहार करता है।
आचार्य नेमिचन्द्र के प्रवचनसारोद्धार ग्रन्थ पर आचार्य सिद्धसेनसूरि ने एक वृत्ति लिखी है। उसमें उन्होंने लिखा है— क्लेश समुत्पन्न करने वाले आठ कर्मशत्रुओं को जो दूर करता है— वह विनय है— 'विनयति क्लेशकारकमष्टप्रकारं कर्म इति विनयः'। विनय से अष्टकर्म नष्ट होते हैं। चार गति का अन्त कर वह साधक मोक्ष को प्राप्त करता है । विनय सद्गुणों का आधार है। जो विनीत होता है उसके चारों ओर सम्पत्ति मंडराती है और अविनीत के चारों ओर विपत्ति । भगवती, १९४ स्थानांग, १९५ औपपातिक १९६ में विनय के सात प्रकार बताए हैं - १. ज्ञानविनय, २. दर्शनविनय, ३. चारित्रविनय, ४. मनविनय, ५. वचनविनय, ६. कार्याविनय, ७. लोकोपचारविनय । ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि को विनय कहा गया है, क्योंकि उनके द्वारा कर्मपुद्गलों का विनयन यानी विनाश होता है। विनय का अर्थ यदि हम भक्ति और बहुमान करें तो ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि के प्रति भक्ति और बहुमान प्रदर्शित करना है । जिस समाज और धर्म में ज्ञान और ज्ञानियों का सम्मान और बहुमान होता है, वह धर्म और समाज आगे बढ़ता है। ज्ञानी धर्म और समाज के नेत्र हैं। ज्ञानी के प्रति विनीत होने से धर्म और समाज में ज्ञान के प्रति आकर्षण बढ़ता है। इतिहास साक्षी है कि यहूदी जाति विद्वानों का बड़ा सम्मान करती थी, उन्हें हर प्रकार की सुविधाएं प्रदान करती थी, जिसके फलस्वरूप आइन्सटीन जैसा विश्वविश्रुत वैज्ञानिक उस जाति में पैदा हुआ। अनेक मूर्धन्य वैज्ञानिक और लेखक यहूदी जाति की देन हैं। अमेरिका और रूस में जो विज्ञान की अभूतपूर्व प्रगति हुई है, उसका मूल कारण भी वहां पर वैज्ञानिकों और साहित्यकारों का सम्मान रहा है। भारत में भी राजा गण जब कवियों को उनकी कविताओं पर प्रसन्न होकर लाखों रुपया पुरस्कार - स्वरूप दे देते थे तब कविगण जम कर के साहित्य की उपासना करते थे । गीर्वाण-गिरा का जो साहित्य समृद्ध हुआ उसका मूल कारण विद्वानों का सम्मान था । ज्ञानविनय के पांच भेद औपपातिक में प्रतिपादित हैं।
दर्शनविनय में साधक सम्यग्दृष्टि के प्रति विश्वास तथा आदर भाव प्रकट करता है। इस विनय के दो रूप हैं—१. शुश्रूषाविनय, २. अनाशातनाविनय । औपपातिक के अनुसार दर्शनविनय के भी अनेक भेद हैं। देव, गुरु, धर्म आदि का अपमान हो, इस प्रकार का व्यवहार नहीं करना चाहिए। आशातना का अर्थ ज्ञान आदि सद्गुणों की
१९४. भगवती २५/७
१९५. स्थानांगसूत्र ७ / १३० १९६. औपपातिक, तपवर्णन
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