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चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका
त्रसकायिक जीव-त्रसनशील को त्रस कहते हैं, अथवा जो स्वत:प्रेरित (स्वतंत्ररूप से) गमनागमन करता हो, वह त्रस कहलाता है, त्रस ही जिनका काय हो, अथवा जिनमें द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक हों या जिनमें छह द्रव्यप्राणों से लेकर १० प्राणों तक हों, वे त्रसकाय या त्रसकायिक कहलाते हैं। कृमि, शंख, कुन्थु, चींटी, मक्खी, मच्छर, भौंरा आदि तथा मनुष्य, तिर्यंञ्च (पशु, पक्षी आदि), देव और नारक जीव- त्रसकायिक हैं।
वन जीवों की सचेतनता आबालप्रसिद्ध एवं प्रत्यक्षसिद्ध है। आगम प्रमाण से भी सिद्ध है। यहां भी 'से जे पुण इमे अणेगे' कहकर त्रसकाय का प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होना सिद्ध किया है। जो द्वीन्द्रिय आदि के भेद से अनेक प्रकार के, एक-एक जाति में बहुत-से, अथवा भिन्न-भिन्न योनि वाले, आतप (धूप, गर्मी) आदि से पीड़ित होने पर त्रास (उद्वेग) पाने वाले अथवा स्वत:प्रेरणा से छायादार शीतल और निर्भयस्थान में चले जाने वाले एवं व्यक्त चेतनावान् जीव हैं, वे त्रस कहलाते हैं। कहीं-कहीं पृथ्वीकाय आदि के सूत्रोक्त क्रम का कारण भी स्पष्ट किया गया है।
चित्तमंतं, चित्तमत्तं : तीन रूप, तीन अर्थ- (१) चित्तवत्-चित्त का अर्थ है—जीव या चैतन्य। जिसमें चेतना या चैतन्य हो, उसे चित्तवत् कहते हैं।२१ तात्पर्य यह है कि पृथ्वीकाय आदि पांच स्थावर जीवनिकायों में चेतना होती है, वे चैतन्यवान् —सजीव कहे गए हैं। (२) चित्तमात्रं मात्र शब्द के दो अर्थ होते हैं स्तोक (अल्प) और परिमाण। प्रस्तुत प्रसंग में मात्र शब्द स्तोकवाचक है। तात्पर्य यह है कि पृथ्वीकाय आदि पांच जीवनिकायों (स्थावरों) में चैतन्य स्तोक–अल्प विकसित होता है। उनकी चेतना अव्यक्त होती है, त्रस जीववत् उच्छ्वास, निःश्वास, निमेष गति-प्रगति आदि चेतना के व्यक्त चिह्न इनमें नहीं होते हैं । अथवा (३)चित्तमत्तं—मत्त का अर्थ मूछित भी है। जिस प्रकार मद्यपान, सर्पदंश आदि चित्तविघात के कारणों से अभिभूत मनुष्य का चित्त मत्त मूछित हो जाता है, वैसे ही ज्ञानावरणीय एवं मोहनीय कर्म के प्रबल उदय से पृथ्वीकाय आदि एकेन्द्रिय जीवों का चित्त (चैतन्य) सदैव मूछित-सा रहता है। अर्थात् एकेन्द्रियों में चैतन्य सबसे जघन्य होता है। एकेन्द्रिय से द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च व सम्मूछिम मनुष्य, गर्भजतिर्यञ्च, गर्भजमनुष्य,
१८. हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र १३८ १९. दशवैकालिक, आचारमणिमंजूषा टीका, भाग १, पृ. २२२ २०. दशवैकालिक (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. ६१ २१. (क) प्रचलित मूलपाठ 'चित्तमंत' है, किन्तु हरिभद्रसूरि, जिनदास महत्तर आदि ने पाठान्तर माना है—'पाठान्तरं वा पुढवी चित्तमत्तमक्खाया' इत्यादि।
-हारि. वृत्ति, पत्र १३८ (ख) चित्तं जीवलक्षणं तदस्यस्तीति चित्तवत् चित्तवतो वा, सजीवेत्यर्थः ।
-हारि. वृत्ति, पत्र १३८ २२. (क) 'मत्तासद्दो दोसु अत्थेसु, वट्टइ, तं-थोवे वा परिमाणे वा।'
—जिन. चूर्णि, पृ. १३५ (ख) 'अत्र मात्र शब्दः स्तोकवाची, यथा सर्षपत्रिभागमात्रमिति।' ततश्च चित्तमात्रा-स्तोकचित्ता इत्यर्थः ।
-हारि. वृत्ति, पृ. १३८ (ग) 'चित्तमात्रमेव तेषां पृथ्वीकायिनां जीवितलक्षणं, न पुनरुच्छ्वासादीनि विद्यते ।' –जिनदास चूर्णि, पृ. १३६ (घ) अहवा चित्तं मत्तं (मुच्छियं) एतेसिं ते चित्तमत्ता । जहा पुरिसस्स मज्जपाण-विसोवयोग-सप्पावराहहिप्पूरभक्खण-मुच्छादीहिं चेतोविघातकारणेहिं जुगपदभिभूतस्स चित्तं मत्तं, एवं पुढविक्कातियाणं ।
-अगस्त्य चूर्णि, पृ.७४