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दशवैकालिकसूत्र बनता है। ___अगुणाणं विवजए-अवगुणों का त्याग कर देता है, या (२) अवगुणरूपी ऋण नहीं करता। 'अवगुण' शब्द का आशय यहां है—प्रमाद, अविनय, क्रोध, असत्य, कपट, रसलोलुपता आदि। समाचारी के सम्यक् पालन की प्रेरणा : उपसंहार
२६३. सिक्खिऊण भिक्खेसणसोहिं संजयाण बुद्धाण सगासे । तत्थ भिक्खु सुप्पणिहिइंदिए तिव्वलजगुणवं विहरेज्जासि ॥५०॥
-त्ति बेमि ॥ ॥पिण्डेसणाए बीओ उद्देसओ समत्तो ॥
॥पंचम पिंडसेणाऽज्झयणं समत्तं ॥५॥ [२६३] (इस प्रकार) संयमी एवं प्रबुद्ध गुरुओं (आचार्यों) के पास भिक्षासम्बन्धी एषणा की विशुद्धि सीख कर इन्द्रियों को सुप्रणिहित (समाधिस्थ) रखने वाला, तीव्रसंयमी (लज्जाशील) एवं गुणवान् होकर भिक्षु (संयम में) विचरण करे ॥५०॥ -ऐसा मैं कहता हूं।
विवेचन एषणाविशुद्धि सीखे और उत्कृष्ट संयम में विचरे–प्रस्तुत उपसंहारगाथा में दो प्रेरणाएं मुख्यतया विहित हैं।
तिव्वलज-गुणवं : भावार्थ तीव्र –उत्कृष्ट, लज्जा—संयम और गुण से युक्त होकर।"
॥ पिण्डषणा अध्ययन का द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥ ॥पांचवां पिण्डैषणा नामक अध्ययन सम्पूर्ण ॥
४२. दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. २९४ ४३. (क) वही, पृ. २९९
(ख) अगस्त्यचूर्णि, पृ. १३६ : 'अगुणो एव रिणं, तं विवजेति ।' ४४. 'लज्जा—संजमो। तिव्वसंजमो—उक्किट्ठो संजमो जस्स सो तिव्वसंजमो भण्णइ ।'
–जिनदासचूर्णि, पृ. २०५