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दशवैकालिकसूत्र
विवेचन संयमभ्रष्ट की उभयलोक में दुर्गति — प्रस्तुत छह गाथाओं ( ५५० से ५५५ तक) में उत्प्रव्रजित का हार्दिक पश्चात्ताप तथा संयम में रति और अरति के सुखद - दुःखद परिणामों का निरूपण किया गया है।
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हार्दिक पश्चात्ताप उत्प्रव्रजित होकर गृहजंजाल में फंसा हुआ भूतपूर्व साधु हार्दिक पश्चात्ताप करता है कि 'यदि मैं भावितात्मा होता, (अर्थात् — ज्ञान - दर्शन - चारित्र और विविध अनित्यादि भावनाओं से मेरी आत्मा भावितवासित होती ) और मैं उभयलोकहितकारी द्वादशांगी का या अनेक शास्त्रों का ज्ञाता, (बहुश्रुत) होकर जिनेन्द्र - प्रतिपादित श्रमणभाव में ही रमण करता तो आज मैं आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होता । किन्तु अफसोस ! मैंने मूर्खतावश साधुजीवन छोड़ कर विषयभोग रूपी पंकपूर्ण जलबिन्दु के लिए अद्वितीय आचार्यपद जैसे महागौरवरूपी क्षीरसिन्धु को छोड़ दिया ।' यह ५५०वीं गाथा का आशय है । १२
संयम में रत और अरत की मनोदशा का विश्लेषण — जो साधु संयम में रत रहते हैं, उनके लिए मुनि - पर्याय देवलोक के समान सुखप्रद होता है। जिस प्रकार देवता देवलोक में होने वाले नृत्य, गीत, वाद्य आदि देखने में तल्लीन रहते हैं और प्रसन्नता से सदैव समय व्यतीत करते हैं, ठीक उसी प्रकार संयम में रत मुनिगण भी स्वाध्याय, ध्यान, प्रतिलेखन, प्रतिक्रमण, धर्मोपदेश आदि एवं योगादि क्रियाओं में निमग्न रह कर देवों से बढ़ कर सुखों का अनुभव करते हैं । किन्तु जो साधु संयम में रतिहीन होते हैं जिन्हें संयमपर्याय अरुचिकर प्रतीत होता है, उन्हें यह मुनिपर्याय महारौरव नरक के समान दुःखप्रद बन जाता है। क्योंकि उनके चित्त में सदैव विषयसुखों की प्राप्ति की लालसा बनी रहती है, इसलिए वे अहर्निश अशान्त रहते हैं । भगवान् के वेष की वे विडम्बना करते हैं और असातावेदनीय के उदय के कारण उनकी आत्मा घोर मानसिक दुःखों का अनुभव करती है।
इसी गाथा (५५१) का उपसंहार द्वारा निगमन करते हुए शास्त्रकार ने ५५२वीं गाथा में कहा है— पापभीरु विद्वान् मुनि दोनों के सुख-दुःख पर विचार करें, और निश्चित जान लें कि जो साधु संयमरत हैं, वे देवों के समान सुखानुभव करते हैं और जो संयम में रत नहीं हैं वे घोर नरकोपम दुःखानुभव करते हैं। अतएव शास्त्रज्ञ मुनि के लिए उचित है कि वह संयम में दृढ़चित्त होकर मुनिपर्याय में ही रमण करने का मार्ग अपनाए । १३
संयमभ्रष्ट व्यक्तियों की दुर्दशा का चित्रण - ५५३-५५४ एवं ५५५वीं गाथाओं में संयमभ्रष्ट की दुर्दशा का स्पष्ट चित्रण करते हुए बताया गया है कि (१) जो मनुष्य संयमभ्रष्ट होकर विषयभोग में फंस जाते हैं, वे अन्तर्जाज्वल्यमान तपोरूप अग्नि के अलौकिक तेज से हीन, तथा चारित्रश्री से क्षीण होकर प्रभावहीन बन जाते हैं और निन्द्य आचरण करने लगते हैं। आचारहीन नीच पुरुष भी उन्हें घृणा की दृष्टि से देखते हैं। वे उनकी विडम्बना करते हैं । शास्त्रकार ने संयमभ्रष्ट व्यक्ति की अवहेलना की उपमा बुझी हुई यज्ञ की अग्नि से तथा उखाड़ी हुई दाढ़ वाले विषधर से दी है। उनका आशय यह है कि जिस प्रकार यज्ञ की अग्नि जब तक प्रज्वलित रहती है, तब तक लोग उसमें मधु, घृत आदि श्रेष्ठ वस्तुएं आहुति के रूप में डालते रहते हैं और उसे हाथ जोड़ कर प्रणाम करते हैं । किन्तु बुझ जाने के बाद भस्मीभूत हुई उसी यज्ञाग्नि को लोग बाहर फेंक देते हैं, पैरों तले रौंदते हुए चले जाते हैं । इसी प्रकार सर्प के मुंह में जब तक दाढ़े रहती हैं, तब तक सब लोग उससे दूर भागते और डरते हैं, किन्तु मदारी द्वारा जब उसकी दाढ़ें निकाल दी जाती हैं तो उस सर्प से छोटे-छोटे बच्चे भी नहीं डरते हैं। उसके मुंह में लकड़ी ठूंसते हैं, उसे छेड़ते
१२. दशवैकालिक पत्राकार ( आचार्यश्री आत्मारामजी महाराज), पृ. १०२१ १३. वही, पृ. १०२३-१०२४