________________
३८६
दशवकालिकसूत्र पक्ष्या आइण्ण-ओमाण-विवज्जणा गया,
उस्सन्नदिदीहंडी 17 भत्तपाणे । संसट्ठकप्पेण चरेन्ज भिक्खू,
तज्जायसंसट्ठ जई । 'जएज्जा ॥ ६॥ ५६६. अमज्ज-मंसासि पुल अमच्छरीया. 7 :
अभिक्खणं +निव्विगईंगया. य । अभिक्खणं काउसग्गकारी,
सज्झायजोगें पयओ" हवेज्जा ॥ ७॥ .५६७. न, पडिण्णवेज्जा* सयणाऽऽसणाई, LIFE २९. सेजं निसेन्जंतहको भत्तपाणं ।
गामे कुले वा नगरे व देसे करा -
ममत्तभावं न कहिंचि* कुज्जा ॥ ८॥ ५६८. गिहिणो वेयावडियं न माक्रुज्जा
,"अभिवायणं वंदणं यूयणं वा । म असंकिलिटेहि समं ... 'वसेज्जा , पाल
मुणी चरित्तस्स जओ न हाणी ॥ ९॥ १५६९. न या लभैग्जा निउणं सहाय.
गुणाहियं वा गुणओ समं वाला एक्को वि पावाई विवज्जयंतो,
विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो ॥ १०॥ "५७०. संवच्छर वा वि पर पमाण. TSF
बीय च वासं न तर्हि वसेजा। सुर्तस्स मग्गैण चरेज भिक्खू,
सुत्तस्स अत्यो जह' आणवेइ ॥ ११॥ [५६४] अनिकेत-वास (अथवा अनियतवास), समुदान-चर्या, अज्ञातकुलों से भिक्षा-ग्रहण, एकान्त (विविक्त) स्थान में निवास, अल्प-उपधि और कलह-विवर्जन, यह विहारचर्या ऋषियों के लिए प्रशस्त है ॥५॥
[५६५] आकीर्ण और अवमान नामक भोज का विवर्जन एवं प्रायः दृष्टस्थान से लाए हुए भक्त-पान का ग्रहण, (ऋषियों के लिए प्रशस्त है।) भिक्षु संसृष्टकल्प (संसृष्ट हाथ और पात्र आदि) से ही भिक्षाचर्या करें। (दीयमान वस्तु से दाता के हाथ बर्तन आदि संसृष्ट हों तो) उसी संसृष्ट (हाथ और पात्र) से साधु भिक्षा लेने का यत्न
पाठान्तर- + निव्विगई गया ।
* पडिन्नविज्जा ।
*कहिं पि।