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द्वितीय परिशिष्ट : कथा, दृष्टान्त, उदाहरण
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गुरु–'आयुष्मन् ! (१) कोई पदार्थ कान्त होता है, पर प्रिय नहीं होता, (२) कोई प्रिय होता है, कान्त नहीं। (३) कोई पदार्थ प्रिय भी होता है और कान्त भी तथा (४) कोई पदार्थ न प्रिय होता है और न कान्त।'
शिष्य गुरुवर! ऐसा होने का कारण क्या है ?'
गुरु-शिष्य ! जो पदार्थ कान्त हो, वह प्रिय हो ही, ऐसा नियम नहीं है। किसी व्यक्ति को कान्त पदार्थ में प्रियबुद्धि होती है, किसी को अकान्त में भी प्रियबुद्धि उत्पन्न होती है। एक वस्तु एक व्यक्ति को कान्त लगती है, वही दूसरे को अकान्त लगती है। क्रोध, असहिष्णुता, अकृतज्ञता और मिथ्यात्वाभिनिवेश आदि कारणों से व्यक्ति किसी में विद्यमान गुणों को देख नहीं पाता, वह उसमें अविद्यान दोषों को ढूंढने लगता है। इस प्रकार कान्त में उसकी अकान्तबुद्धि हो जाती है।' ___इसलिए 'कान्त' और 'प्रिय' भोग के ये दोनों विशेषण सार्थक हैं। कान्त का अर्थ रमणीय है और प्रिय का अर्थ है—इष्ट । अथवा कान्त का अर्थ है—सहज सुन्दर और प्रिय का अर्थ है—अभिप्रायकृत सुन्दर।
–दशवै. अ. २, गा. ३, जिनदासचूर्णि (५) स्वेच्छा से तीन साररत्नों का त्यागी भी त्यागी है
(साहीणे चयइ भोए०) इस विषय में एक शंका प्रस्तुत करके आचार्यश्री एक दृष्टानत द्वारा उसका समाधान करते हैं
शिष्य ने पूछा-पूज्यवर ! यदि भरत और जम्बू जैसे स्वाधीन भोगों का त्याग करने वाले ही त्यागी हैं, तो क्या निर्धन दशा में प्रव्रजित होकर अहिंसा आदि महाव्रतों तथा दशविध श्रमणधर्म का सम्यक् पालन करने वाले त्यागी नहीं हैं ?'
आचार्य–'ऐसे श्रमणधर्म में दीक्षित व्यक्ति भी दीन-हीन नहीं हैं, वे भी तीन सारभूतरत्नों का स्वेच्छा से परित्याग कर दीक्षा लेते हैं, अतः वे भी त्यागी हैं ?'
शिष्य गुरुदेव ! वे तीन सारभूतरत्न कौन-से हैं ?'
आचार्य 'लोक में अग्नि, सचित्त जल और महिला, ये तीन साररत्न हैं। इनका स्वेच्छा से बिना किसी दबाव के परित्याग करके प्रव्रजित होना अतीव दुष्कर है। इन तीनों साररत्नों के त्यागी को, त्यागी न समझना भयंकर भूल है।'
शिष्य–'किसी उदाहरण द्वारा इसे समझाइए।'
गुरुदेव–'पंचम गणधर श्री सुधर्मास्वामी के पास एक लकड़हारे ने राजगृही में दीक्षा ली। दीक्षित होकर वह साधु जब राजगृही में भिक्षा के लिए घूमता तो कुछ धनोन्मत्त लोग उसे ताने मारते—'देखोजी! यह वही लकड़हारा है, जो सुधर्मास्वामी के पास प्रव्रजित हो गया है। साधु बार-बार लोगों की व्यंग्योक्ति सुनकर तिलमिला उठा। उसने गणधर सुधर्मास्वामी से कहा-'अब मुझसे ये ताने नहीं सहे जाते। इसलिए अच्छा हो कि आप मुझे अन्यत्र ले पधारें।' आचार्यश्री ने अभयकुमार से कहा—'हमारा अन्यत्र विहार करने का भाव है।' अभयकुमार ने पूछा- क्यों पूज्यवर ! क्या यह क्षेत्र मासकल्पयोग्य नहीं, जो आप इतने शीघ्र ही यहां से अन्यत्र विहार करना चाहते हैं ?' आचार्यश्री ने वह घटना आद्योपान्त सुनाई। उसे सुनकर अभयकुमार ने कहा-'आप निश्चिन्त होकर विराजें, मैं लोगों