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दशवैकालिकसूत्र
आपने अपनी प्रतिज्ञा भंग कर दी है। अब मुझ से आपकी सेवा नहीं हो सकती, क्योंकि जिस सेवा-दान का फल बहुत ही स्वल्प मिले, वह मुझे पसंद नहीं। किसी से सेवा की अपेक्षा रख कर सेवा करने का फल अत्यल्प होता है।'
बेचारे संन्यासीजी अपना दण्ड-कमण्डलु उठा कर चल दिये। इसीलिए जिस दाता से सेवा आदि के रूप में दान का प्रतिफल पाने की इच्छा नहीं होती, जो निःस्पृहभाव से सेवा या दान करता है ऐसा मुधादायी दुर्लभ है।
-दशवै. अ.५ गा.२१३(आचार्य श्री आत्मा.)
(१२) मुधाजीवी भी दुर्लभ है!
(मुहाजीवी वि दुल्लहा....) . एक राजा अत्यन्त धर्मात्मा और प्रजाप्रिय था। एक दिन उसने विचार किया कि यों तो सभी धर्म वाले अपनेअपने धर्म की प्रशंसा करते हैं और उसी के स्वीकार से मोक्ष प्राप्त होना बतलाते हैं। अतः धर्मगुरु से धर्म की परीक्षा करनी चाहिए, क्योंकि धर्म के प्रवर्तक धर्मगुरु ही होते हैं। सच्चा धर्मगुरु वही है जो किसी प्रकार की आशा-आकांक्षा के निःस्वार्थभाव से, जैसा भी जो भी आहार-पानी मिला, उसे प्रसन्नता से ग्रहण करके सन्तुष्ट रहता है। उसी का धर्म सर्वश्रेष्ठ होगा। यह सोच कर राजा ने अपने सेवकों द्वारा घोषणा कराई कि मेरे देश में जितने भी भिक्षुक हैं, उन सबको मैं मोदक दान करना चाहता हूं। सभी राजमहल के प्रांगण में पधारें। उनमें बहुत-से भिक्षुक आए, जिनमें कार्पटिक, जटाधारी, जोगी, तापस, संन्यासी, श्रमण, ब्राह्मण आदि सभी थे। नियत समय पर राजा ने आकर उनसे पूछा'भिक्षुओ! कृपा करके यह बतलाइए कि आप अपना जीवननिर्वाह कैसे करते हैं ?'
उपस्थित भिक्षुओं में से एक ने कहा—'मैं अपना निर्वाह मुख से करता हूं।' दूसरे ने कहा—'मैं पैरों से निर्वाह करता हूं।' तीसरे ने कहा—'मैं हाथों से अपना निर्वाह करता हूं।' चौथे ने कहा—'मैं लोकानुग्रह से निर्वाह करता हूं।' पांचवें ने कहा-'मेरे निर्वाह का क्या ? मैं तो मुधाजीवी हूं।'
राजा ने सबकी बातें सुन कर कहा—'आप सब ने जो-जो उत्तर दिया, उसे मैं समझ नहीं सका। कृपया इसका स्पष्टीकरण कीजिए।' इस पर उत्तरदाताओं ने क्रमशः कहना प्रारम्भ किया--
प्रथम 'राजन् ! मैं भिक्षुक तो हो गया पर पेट वश में नहीं है। उदरपूर्ति के लिए मैं लोगों के सन्देश पहुंचाया करता हूं। अतः मैंने कहा कि मैं मुख से निर्वाह करता हूं।'
द्वितीय—'महाराज ! मैं साधु हूं। पत्रवाहक का काम करता हूं। गृहस्थ लोग, जहां भेजना होता है, वहां पत्र देकर मुझे भेज देते हैं और उपयुक्त पारिश्रमिक द्रव्य दे देते हैं, जिससे मैं अपनी आवश्यकताएं पूरी करता हूं। अतः मैं पैरों से निर्वाह करता हूं।'
तृतीय-'नरेन्द्र ! मैं लेखक हूं। मैं अपनी समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति लेखन-कार्य से करता हूं। इसलिए मैंने कहा कि मैं अपना निर्वाह हाथों से करता हूं।'
चतुर्थ 'महीपाल ! मैं परिव्राजक हूं। मेरा कोई खास धंधा नहीं है, जिससे मेरा निर्वाह हो। परन्तु मैं आवश्यकताओं की पूर्ति लोगों के अनुग्रह से करता हूं। अतः येन-केन-प्रकारेण लोगों को प्रसन्न रखना मेरा काम है—इसी से मेरा निर्वाह हो जाता है।'
. पंचम—'आयुष्मन् देवानुप्रिय ! मेरे निर्वाह का क्या पूछते हैं ? मैं तो संसार से सर्वथा विरक्त निर्ग्रन्थ हूं। मैं