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दशवैकालिकसूत्र इसके पश्चात् एकाग्र होकर फिर विचार करे कि मैं अपने गृहीत व्रतों, नियमोपनियमों तथा संयमाचार की मर्यादाओं से स्खलित होता हूं, तब स्व-पर-पक्ष के लोग मुझे किस दृष्टि से देखते हैं ? तथा इस आत्मकल्याण के पक्ष से स्खलित होने पर क्या मैं अपने आपका अन्तर्निरीक्षण करता हूं? यह कार्य करना मेरे लिए उचित नहीं है, क्या मैं इस प्रकार से विचार करता हूं ? और अपनी भूल या स्खलना को छोड़ देता हूं? अथवा कौन-सी ऐसी स्खलना या त्रुटि है, जिसे मैं छोड़ नहीं रहा हूं? मेरी असमर्थता का क्या कारण है ? इस प्रकार से साधु-साध्वी प्रतिदिन नियमित रूप से अपना अन्तर्निरीक्षण करें। ऐसा करने से आत्मशक्ति एवं स्वकर्तव्य का भान होता है, भ्रम का पर्दा दूर होता है, आलस्य एवं प्रमाद के स्थान पर पुरुषार्थ एवं आत्मजागरण बढ़ता है तथा पाप-मल दूर होने से निजात्मा की शुद्धि होती है, आत्मशक्ति बढ़ती और अन्त में संसार की जन्ममरणपरम्परा से मुक्ति मिलती है। आत्मनिरीक्षण करने के पश्चात् मनुष्य अपनी भूल को सुधारने के लिए भी प्रयत्नशील होता है। अत्यन्त सावधानी से अपनी सूक्ष्म भूल का भी विचार करने से भविष्य में किसी प्रकार का दोष न लगाने या वैसी भूल न करने की सावधानी रखता है। अथवा 'अणागयं पडिबंधं न कुज्जा' का भावार्थ यह भी हो सकता है कि वह अपने दोषों (भूलों) को तत्काल सुधारने में लग जाए, भविष्य पर न टाले कि मैं इस भूल को कल, परसों या महीने बाद सुधार लूंगा। यही 'अनागत प्रतिबन्ध न करे"का आशय प्रतीत होता है। जब कभी कोई भूल हो, उसे उसी दिन या शीघ्र ही स्मरण करके उससे निवृत्त होने का प्रयत्न करे तथा भविष्य में वैसी भूल न करने के लिए सावधान रहे । स्खलित होना बुरा है किन्तु इससे भी बुरा है स्खलित होकर फिर संभलने की चेष्टा न करना। इसीलिए अगली गाथा (५७३) में इसी प्रकार की प्रेरणा दी गई है कि मन-वचन-काया से जिस किसी विषय में अपने-आप को कुमार्ग पर जाता हुआ देखे कि धैर्यवान् साधक तुरन्त अपने-आप को पीछे हटा ले, शीघ्र ही स्वयं संभल जाए। जिस प्रकार जातिमान घोड़ा लगाम खींचते ही विपरीत मार्ग से पीछे हट जाता है, संभल कर सन्मार्ग पर चलने लगता है।
प्रतिबुद्धजीवी : लक्षण और उपाय—गाथा ५७५ में यह बताया गया है कि जो स्पर्श आदि पांचों इन्द्रियों को अपने वश में करके जितेन्द्रिय बन गया है तथा हृदय में संयम के प्रति अदम्य धैर्य से युक्त है तथा जिसके मन, वचन और काययोग सदैव वश में रहते हैं, जो सतत अप्रमत्त रहकर अपने-आप को त्रियोग में से किसी योग से स्खलित होता हुआ देखता है तो शीघ्र ही संभल जाता है और उस दोष से अपने को पृथक् कर लेता है। यही प्रतिबुद्धजीवी का लक्षण है, जो भारण्डपक्षी की तरह सदैव अप्रमत्त रहता है तथा सदैव संयमी जीवन जीता है।१६
आत्म-रक्षाचर्या-गाथा ५७५ में आत्मा की सतत रक्षा करने का निर्देश किया है। कुछ लोग देहरक्षा को मुख्य मानते हैं। उनका मानना है कि आत्मा की परवाह न करके भी शरीर की रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि शरीर आत्मसाधना करने का साधन है। किन्तु यहां इस मान्यता का खण्डन करके आत्मरक्षा को ही सर्वोपरि माना है। साधु-साध्वी को महाव्रत के ग्रहणकाल से लेकर मृत्युपर्यन्त प्रतिक्षण प्रतिपल सावधानीपूर्वक सदैव आत्मरक्षा में लगे रहना चाहिए। प्रश्न हो सकता है—आत्मा तो कभी मरती नहीं फिर उसकी रक्षा का विधान क्यों ? इसका उत्तर आचार्यों ने स्पष्टतः दिया है कि यहां आत्मा से ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा, चारित्रात्मा और वीर्यात्मा का अथवा संयमात्मा (संयमीजीवन) का ग्रहण अभीष्ट है। ज्ञानात्मा आदि की, अथवा संयमात्मा की सतत रक्षा करनी चाहिए। संयमात्मा १५. दशवै. (आचार्यश्री आत्मारामजी महाराज), पृ. १०५७ से १०६० के आधार पर। १६. दशवै. (आचार्यश्री आत्मारामजी महाराज), पृ. १०६१-१०६२