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प्रथम चूलिका : रतिवाक्या
३७७ हैं। ऐसा ही लज्जाजनक तिरस्कार मुनिपदभ्रष्ट व्यक्तियों का होता है। (२) जो व्यक्ति सांसारिक भोग-विलासों के लोभ से श्रमणधर्म से भ्रष्ट एवं पतित होकर गृहीत व्रतों को खण्डित करता है, गृहवास में आकर अधार्मिक कृत्य करने लग जाता है, इस लोक में शुभ पराक्रम न होने से उसकी अपकीर्ति और बदनामी होती है तथा प्राकृत श्रेणी के साधारण अज्ञ लोगों द्वारा भी वह धर्मभ्रष्ट, कायर, म्लेच्छ, पतित आदि नामों से चिढ़ाया जाता है। यह तो हुई इस लोक की दुर्दशा। परलोक में भी उसकी दुर्दशा कम नहीं होती। संयमभ्रष्ट व्यक्ति जब अपना जीवन दुःखपूर्वक समाप्त करके परलोक में जाता है तब उसकी अधर्म-भावना के कारण उसे अच्छा स्थान नहीं मिलता। उसे स्थान मिलता हैनरक और तिर्यञ्चगति में। नरक में तो उसे पलक झपकने तक का भी सुख नहीं मिलता। वह सतत हाय-हाय और मरा-मरा की करुण पुकार में समग्र जीवन बिताता है। (३) जिस मनुष्य ने श्रमणजीवन का परित्याग कर मुनिधर्म की अपेक्षा न रखते हुए अत्यासक्तिपूर्वक विषयभोगों का सेवन किया है तथा अज्ञानतापूर्वक हिंसाकारी कृत्य किए हैं, वह असन्तुष्ट एवं अतृप्त होकर दुःखपूर्वक मर कर नरकादि दुर्गतियों में जाता है, जो स्वभावतः भयंकर एवं असह्य दुःखद हैं। घोरातिघोर दुःखों से पीड़ित मनुष्य भी वहां जाना नहीं चाहता। फिर नरक के घोरातिघोर दुःख भोगने के बाद भी दुःखों से पिण्ड नहीं छूटता, क्योंकि दुःखों से छुटकारा दिलाने वाली जिनधर्मप्राप्तिरूप बोधि है, जो उसे मिथ्यात्वमोहनीय आदि अशुभकर्मोदयवश सरलता से प्राप्त नहीं हो सकती, यह प्रवचनविराधना एवं संयमभ्रष्टता का कटुफल है। अतः थोड़े से क्षणिक विषयसुखों के लिए संयम-परित्याग करना कितनी भयंकर भूल है ?*
कठिन शब्दों के अर्थ सिरिओ श्रियः-(१) श्रामण्य (चारित्र) रूपी लक्ष्मी या शोभा से अथवा (२) तपरूपी लक्ष्मी से। अप्पतेयं अल्पतेज, निस्तेज । दुविहियं : दुर्विहित—जिसका आचरण या विधि-विधान दुष्ट होता है, अथवा समाचारी का विधिवत् पालन करने वाला भिक्षु। हीलंति लज्जित करते हैं, कदर्थना करते हैं, अवहेलना करते हैं। संभिन्नवित्तस्स-संभिन्नवत्त जिसका शील या चारित्र खण्डित हो गया है। अधम्मोअधर्म-अधर्मजनक। अयसो—अयश-अपयश होता है। जैसे—यह देखो—भूतपूर्व श्रमण है, धर्म से पतित है, इस प्रकार व्यंगपूर्वक दोषकीर्तन करना अयश कहलाता है। यश का अर्थ संयम भी है, इसलिए संयम में पराक्रम की न्यूनता—मन्दता को भी अयश—अल्पयश कहा है। पसज्झचेतसा प्रसह्यचेतसा–प्रसह्य शब्द के अनेक अर्थ हैं—हठात्, बलपूर्वक, प्रकट, वेगपूर्वक आदि। यहां भावार्थ होगा—विषयभोगों के लिए हिंसा, असत्यादि में मन को अभिनिविष्ट करके प्रबल वेगपूर्ण चित्त से।अणभिझियं अनभिध्यातां अनिष्ट, अनभिलषित या अनिच्छनीय। बोही अर्हद्धर्म की उपलब्धि, बोधि।१५ श्रमणजीवन में दृढ़ता के लिए प्रेरणासूत्र
५५६. इमस्स ता नेरइयस्स जंतुणो दुहोवणीयस्स किलेसवत्तिणो । पलिओवमं झिज्जइ सागरोवमं किमंग ! पुण मज्झ इमं मणोदुहं ? ॥१५॥ ५५७. न मे चिरं दुक्खमिणं भविस्सई,
असासया भोग-पिवास जंतुणो ।
१४. दशवैकालिक पत्राकार (आचार्यश्री आत्मारामजी महाराज), पृ.१०२५ से १०३० तक १५. हारि. वृत्ति, पत्र २७६-२७७, जिनदासचूर्णि, पृ. ३६४, अगस्त्यचूर्णि