________________
३७८
दशवैकालिकसूत्र न चे सरीरेण इमेणऽवेस्सई,
अवेस्सई जीवियपज्जवेण मे ॥ १६॥ ५५८. जस्सेवमप्पा उ हवेज निच्छिओ,
'चएज्ज देहं, न धम्मसासणं ।' तं तारिसं नो पयलेंति इंदिया,
उवेंतवाया व सुदंसणं गिरि ॥ १७॥ ५५९. इच्चेव संपस्सिय बुद्धिमं नरो,
आयं उवायं विविहं वियाणिया । काएण वाया अदु माणसेणं, तिगुत्तिगुत्तो जिणवयणमहिट्ठिग्जासि ॥१८॥
त्ति बेमि ॥ ॥रइवक्कचूला नाम पढमा चूला समत्ता
[एक्कारसमं रइवक्कऽज्झयणं समत्तं] [५५६] दुःख से युक्त और क्लेशमय मनोवृत्ति वाले इस (नारकीय) जीव की (नरकसम्बन्धी) पल्योपम और सागरोपम आयु भी समाप्त हो जाती है, तो फिर हे जीव! मेरा यह मनोदुःख तो है ही क्या ? अर्थात्-कितने काल का है, (कुछ भी नहीं) ॥१५॥
[५५७] 'मेरा यह दुःख चिरकाल तक नहीं रहेगा, (क्योंकि) जीवों की भोग-पिपासा अशाश्वत है। यदि वह इस शरीर से (शरीर के होते हुए) न मिटी, तो मेरे जीवन के अन्त (के समय) में तो वह अवश्य ही मिट जाएगी' ॥१६॥
[५५८] जिसकी आत्मा इस (पूर्वोक्त) प्रकार से निश्चित (दृढ़-संकल्पयुक्त) होती है वह शरीर को तो छोड़ सकता है, किन्तु धर्मशासन को छोड़ नहीं सकता। ऐसे दृढ़प्रतिज्ञ साधु (या साध्वी) को इन्द्रियां उसी प्रकार विचलित नहीं कर सकी, जिस प्रकार वेगपूर्ण गति से आता हुआ महावात सुदर्शनगिरि (मेरुपर्वत) को ॥ १७॥
[५५९] बुद्धिमान् मनुष्य इस प्रकार सम्यक् विचार कर तथा विविध प्रकार के (ज्ञानादि के) लाभ और उनके (विनयादि) उपायों को विशेष रूप से जान कर काय, वाणी और मन, इन तीन गुप्तियों से गुप्त होकर जिनवचन (प्रवचन) का आश्रय ले ॥१८॥
—ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन प्रव्रज्यात्याग के विचार से विरति के चिन्तनसूत्र प्रस्तुत चार गाथाओं (५५६ से ५५९ तक) में संयमत्याग का विचार सम्यक् चिन्तनपूर्वक स्थगित रखने की प्रेरणा दी गई है।
संयम में दृढ़ता के विचार—(१) गाथा ५५६ का आशय यह है कि संयम पालते हुए किसी प्रकार का दुःख आ पड़ने पर उसके कारण संयम से विचलित होने की अपेक्षा उन दुःखों को सहन करने की शक्ति और संयम में