Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shayyambhavsuri, Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 462
________________ प्रथम चूलिका : रतिवाक्या ३७९ दृढ़ता कैसे प्राप्त हो ? इसके लिए इस प्रकार चिन्तन करना चाहिए इस जीव ने महादुःखपूर्ण एवं एकान्त क्लेशमय नरकगति में अनन्त बार जाकर वहां के शारीरिक-मानसिक दुःखों को पल्योपमों और सागरोपमों जितने दीर्घकाल पर्यन्त सहन किया है, तो फिर संयम जीवन में उत्पन्न हुआ यह दुःख तो है ही कितना? यह तो सिन्धु में बिन्दु के बराबर है। जिस प्रकार अनन्तकाल तक का वह दुःख भोग कर क्षय किया गया था, उसी प्रकार यह दुःख भी भोगने से क्षीण हो जाएगा। अत: मुझे संयम में दृढ़ता धारण करनी चाहिए, उसका परित्याग करना उचित नहीं। नरक के दुःखों का यह महत्त्वपूर्ण दृष्टान्त साहस एवं धैर्य की हिलती हुई दीवार को अतीव सुदृढ़ बनाने वाला है। - (२) गाथा ५५७ का आशय यह है कि यदि किसी कष्ट के कारण संयम में अरति उत्पन्न हो जाए तो साधु को इस प्रकार विचार करना चाहिए—मुझे जो यह दुःख हुआ है, वह चिरकाल तक नहीं रहेगा—कुछ ही दिनों में दूर हो जाएगा, क्योंकि दु:ख के बाद सुख आता ही है। दूसरी बात यह है कि रह-रह कर जो भोग-पिपासा जागृत होती है, जिसके कारण मेरा मन संयम से विचलित हो जाता है, वह अशाश्वत है। इसकी अधिकत्ता यौवन वय तक ही रहती है, उसके बाद तो यह स्वयमेव ढीली पड़ जाती है। अतः मैं इस क्षणिक भोग-पिपासा के चक्कर में क्यों पडूं? कदाचित् यह भी मान लें कि यह वृद्धावस्था तक पिण्ड नहीं छोड़ेगी, तब भी कोई बात नहीं। मृत्यु के समय तो इसे अवश्य ही हट जाना या मिट जाना पड़ेगा। आशय यह है कि जब शरीर ही अनित्य है तो भोग-पिपासा कैसे नित्य हो सकती है ? ये वैषयिक सुख या संयमपालन में उत्पन्न होने वाले दुःख, दोनों ही अस्थिर-अनित्य हैं। अतः नश्वर भोग-पिपासाजनित वैषयिक सुख एवं संयमजनित दु:ख के कारण अनन्त कल्याणकारी संयम का कथमपि त्याग नहीं करना चाहिए। (३) तृतीय गाथा ५५८ में कहा गया है कि उपर्युक्त चिन्तन के आधार पर जब साधक की आत्मा ऐसा दृढ़ निश्चय (संकल्प) कर लेती है कि मेरा शरीर भले ही चला जाए, परन्तु मेरे सद्धर्म का अनुशासन (मौलिक नियम) नहीं जाना चाहिए, अथवा मेरा संयमी जीवन कदापि नहीं जाना चाहिए, क्योंकि शरीर (जीवन) छूट जाने पर जीर्ण शरीर के बदले नया सुन्दर शरीर मिल सकता है, परन्तु आध्यात्मिक जीवन की मृत्यु हो जाने के बाद उसे पुनः प्राप्त करना अत्यन्त दुष्कर है। ऐसे दृढनिश्चयी मुनि को चंचल इन्द्रियां उसी प्रकार धर्मपथ से डिगा कर वैषयिक सुखों में लुभायमान नहीं कर सकतीं, जिस प्रकार प्रलयकाल की प्रचण्ड महावायु पर्वतराज सुमेरु को कम्पायमान नहीं कर सकती। अतः आत्मार्थी मुनि इस प्रकार दृढ़ संकल्प करके श्रमणधर्म में दृढ़ता धारण करके स्वयं को विषयवासना के बीहड़ से अपनी आत्मा को पृथक् रखे। (४) चतुर्थ चिन्तन एवं प्रेरणा प्रस्तुत अध्ययन का उपसंहार करते हुए ५५९वीं गाथा में कहा गया है कि बुद्धिमान् साधक इस अध्ययन में उक्त वर्णन पर भलीभांति पूर्वापर विचार करके तथा उसकी ज्ञानादि प्राप्ति के उपायों (साधनों) को जान कर तीन गुप्तियों से गुप्त होकर जिनवचनों (अथवा जिनशासन) पर दृढ़ रहे अथवा अर्हन्तों के धर्मोपदेश द्वारा आत्मकल्याण करे। इसका अन्तिम फल मोक्ष-प्राप्ति है। सारांश इस अध्ययन में प्रतिपादित समग्र चिन्तन तथा पूर्वोक्त १८ स्थानों में प्रतिपादित विचार संयम से डिगते हुए जीवों को पुनः संयम में स्थिर करने वाले हैं। 'अविस्सई' आदि पदों के अर्थ अविस्सई-अपैष्यति अवश्य ही चली जाएगी। जीवियपजवेण

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