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प्रथम चूलिका : रतिवाक्या
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५५२. अमरोवमं जाणिय सोक्खमुत्तमं,
रयाण परियाए, तहाऽरयाणं । निरओवमं जाणिय दुक्खमुत्तमं,,
रमेज्ज तम्हा परियाए पंडिए ॥ ११॥ ५५३. धम्माओ भटुं सिरिओ ववेयं,
जन्नग्गि विज्झायमिवऽप्पतेयं । हीलंति णं दुविहियं कुसीला,
दाढुद्धियं घोरविसं व नागं ॥ १२॥ ५५४. इहेवऽधम्मो अयसो अकित्ती,
दुन्नामधेन्जं च पिहुज्जणम्मि । चुयस्स धम्माओ अहम्मसेविणो,
संभिन्नवित्तस्स य हे?ओ गई ॥ १३॥ ५५५. भुंजित्तु भोगाइं पसज्झ चेयसा,
तहाविहं कटु असंजमं बहुं । गई च गच्छे अणभिज्झियं दुहं,
बोही य से नो सुलभा पुणो पुणो ॥ १४॥ [५५०] यदि मैं भावितात्मा और बहुश्रुत होकर जिनोपदिष्ट श्रामण्य-पर्याय में रमण करता तो आज मैं गणी (आचार्य) होता ॥९॥
..[५५१] (संयम में) रत महर्षियों के लिए मुनि-पर्याय देवलोक के समान (सुखद होता है) और जो संयम में रत नहीं होते, उनके लिए (यही मुनिपर्याय) महानरक के समान (दुःखद होता है।) ॥१०॥
। [५५२] इसलिए मुनिपर्याय में रत रहने वालों का सुख देवों के समान उत्तम जान कर तथा मुनिपर्याय में रत नहीं.रहने वालों का दुःख नरक के समान तीव्र जान कर पण्डितमुनि मुनिपर्याय में ही रमण करे ॥ ११॥
__ [५५३] जिसकी दाढ़े निकाल दी गई हों, उस घोर विषधर (सर्प) की साधारण अज्ञ जन भी अवहेलना करते हैं, वैसे ही धर्म से भ्रष्ट, श्रामण्य (या तप) रूपी लक्ष्मी से रहित, बुझी हुई यज्ञाग्नि के समान निस्तेज और दुर्विहित साधु की कुशील लोग भी निन्दा करते हैं ॥ १२॥
[५५४] धर्म (श्रमणधर्म) से च्युत, अधर्मसेवी और (गृहीत) चारित्र को भंग करने वाला इसी लोक में अधर्मी (कहलाता) है, उसका अपयश और अपकीर्ति होती है, साधारण लोगों में भी वह दुर्नाम (बदनाम) हो जाता है और अन्त में उसकी अधोगति होती है ॥ १३ ॥
[५५५] वह संयम-भ्रष्ट साधु आवेशपूर्ण चित्त से भोगों को भोग कर एवं तथाविध बहुत-से असंयम (कृत्यों) का सेवन करके दुःखपूर्ण अनिष्ट (नरकादि) गति में जाता है और उसे बार-बार (जन्म-मरण करने पर भी) बोधि सुलभ नहीं होती ॥१४॥