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दशवैकालिकसूत्र
गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट व्यक्ति भी जवानी बीत जाने पर जब बुढ़ापा झांकने लगता है तब पश्चात्ताप करता है, क्योंकि जिस प्रकार मछली के गले में अटका हुआ कांटा (बडिश) न तो गले के नीचे उतरता है और न गले से बाहर निकल सकता है, इसी प्रकार उत्प्रव्रजित भी न तो बुढापे में भोगों को भोग सकता है और न उनसे मुक्त हो सकता है, क्योंकि वह स्त्रीपुत्रादि के जाल में फंस जाता है।
(७) कुकुटुम्ब की दुश्चिन्ताओं से घिरने पर संयम से पतित साधु को जब गृहवास में अनुकूल परिवार नहीं मिलता है, तब विभिन्न प्रतिकूल दुश्चिन्ताओं के कारण उसका हृदय दग्ध होने लगता है। फिर जिस प्रकार स्पर्शविषय का लोभ देकर बन्धनों से बांधा हुआ हाथी घोर दुःख भोगता है, उसी प्रकार साधु भी विषयभोगरूपी बन्धनों से गृहवास में बंधा उत्प्रव्रजित भी घोर दुःख भोगता है। इष्टसंयोग न मिलने से उसके विषयभोगों में विघ्न पड़ता है, जिससे उसका मन कुत्सित चिन्ताओं के कारण संतप्त होता है। लोहे की सांकलों से बंधा हुआ हाथी घोर कष्ट भोगता है, वैसे ही विषय-भोगों के झूठे लालच में फंसकर गृहस्थवास की श्रृंखला से बंधा हुआ उत्प्रव्रजित भी घोर दुःख पाता है।
(८) स्त्री-पुत्रों से घिर जाने के कारण संयम छोड़कर गृहस्थवास में उत्प्रव्रजित व्यक्ति स्त्री-पुत्रादि से घिर जाता है। जिस प्रकार दलदल में फंसा हुआ हाथी दुःख पाता है, उसी प्रकार उत्प्रव्रजित भी स्त्री-पुत्र आदि के मोहमय दल-दल में फंस कर घोर दुःख पाता है। उस समय हाथी की तरह वह उत्प्रव्रजित भी शोक करता है कि हाय ! मैं पहले इस विषयभोग के दल-दल में न फंसता और संयम-क्रियाओं में दृढ़ रहता तो मेरी आज ऐसी दुर्दशा न होती। संयम छोड़कर मैंने क्या लाभ उठाया ?
'आयई' आदि शब्दों के विशेषार्थ आयइ आयति : तीन अर्थ (१) भविष्यकाल, (२) आत्महित या (३) गौरव। कब्बडे : कर्बट : तीन प्रसिद्ध अर्थ—(१) बहुत छोटा सन्निवेश, या क्षुद्र गंवारू गांव, (२) कुनगर, जहां क्रय-विक्रय न होता हो, (३) ऐसा कस्बा, जहां छोटा-सा बाजार हो। सेट्ठी श्रेष्ठी (१) जिस पर लक्ष्मी का चित्र छपा हो, ऐसी पगड़ी (वेष्टन) बांधने की जिसे राजाज्ञा प्राप्त हो। (२) वणिक्-ग्राम का प्रधान, (३) राजमान्य नगरसेठ। छमं क्षमा पृथ्वी। संयमभ्रष्ट गृहवासिजनों की दुर्दशा : विभिन्न दृष्टियों से
५५०. अज्ज या हं गणी होंतो भावियप्या बहुस्सुओ ।
जइ हं रमंतो परियाए सामण्णे जिणदेसिए ॥९॥ ५५१. देवलोगसमाणो उ परियाओ महेसिणं ।
रयाणं, अरयाणं च महानिरय-सालिसो ॥ १०॥ ८. वही, पृ. १०१७ ९. दशवैकालिक (आचार्यश्री आत्मारामजी महाराज), पृ. १०१८ १०. वही, पृष्ठ १०१९ ११. (क) अगस्त्यचूर्णि (ख) राजकुललद्धसम्माणो, समाविद्धवेट्ठगो वणिग्गामहत्तरो य सेट्ठी ।
-अगस्त्यचूर्णि (ग) जम्मि य पट्टे सिरियादेवी कज्जति, तं वेट्टणगं जस्स रन्ना अणुन्नातं सो सेट्ठी भण्णइ । —निशीथचूर्णि