________________
प्रथम चूलिका : रतिवाक्या
३७३
अब तो मनुष्यलोक में मुझे अनेक कष्ट भोगने पड़ेंगे।' इसी प्रकार उत्प्रव्रजित साधु भी जब अपने क्षमा, शील, सन्तोष या अहिंसा-सत्यादि सब धर्मों से भ्रष्ट हो जाता है, तब वह लोगों की नजरों में गिर जाता है, वह लोगों का श्रद्धाभाजन एवं गौरवास्पद नहीं रहता, तब वह सिर धुन-धुन कर पछताता है कि हाय मैंने कितना अनर्थ कर डाला। अब तो मैं किसी दीन-दुनिया का नहीं रहा। मैंने लोक-परलोक दोनों बिगाड़ लिये। पश्चात्ताप का कारण यह भी है कि जब व्यक्ति साधुधर्म से स्खलित होता है, तब तो उसके मोहनीय कर्म का प्रबल उदय होता है, जिससे संभलना कठिन होता है, किन्तु बाद में जब एक के बाद एक भयंकर दुःख आ पड़ते हैं और मोहनीय कर्म का उदय मन्दभाव में आ जाता है, तब वह इन्द्र के समान शोक, विलाप और पश्चात्ताप करने लगता है।'
(३) अवन्दनीय हो जाने के कारण जब साधु अपने संयम में स्थिरचित्त रहता है, उसका भलीभांति पालन करता है, उस समय तो वह राजा, मंत्री, करोड़पति श्रेष्ठी आदि द्वारा वन्दनीय होता है, किन्तु जब संयमधर्म को छोड़ कर भोगी गृहस्थ हो जाता है, तब सत्कार करने वाले उन्हीं मनुष्यों से वह असह्य तिरस्कार पाता है, अवन्दनीय हो जाता है, गलितकाय कुत्ते की तरह दुरदुराया जाता है। जिस तरह स्थानच्युत इन्द्रवर्जित देवी अपने पूर्वकालीन अखण्ड गौरव, देवियों द्वारा सेवाभक्ति, वन्दन आदि सुखों का स्मरण कर-करके शोक करती है, उसी तरह संयमस्थान से च्युत साधु भी अपने भूतपूर्व गौरव, पद, स्थान आदि को बार-बार याद करके मन में पश्चात्ताप करता
(४) अपूज्य होने के कारण जब साधु अपने चारित्रधर्म में स्थिर रहता है, तब भावुक जन भावभक्तिपूर्वक भोजन, वस्त्र आदि से उसकी पूजा करते हैं, उसके चरण पूजते हैं, उसे प्रतिष्ठा देते हैं, किन्तु जब वह चारित्रधर्म को छोड़ कर गृहस्थ बन जाता है, तब सब लोगों के लिए अपूज्य हो जाता है। उसका कहीं भी भोजनवस्त्रादि से सत्कार नहीं होता। तब जिस प्रकार राज्य से भ्रष्ट हो जाने पर राजा को कोई नहीं पूछता, वह अपने पूर्व गौरव को याद करके भारी पश्चात्ताप करता है, उसी प्रकार चारित्रभ्रष्ट व्यक्ति भी अपनी पूर्वगौरवदशा का स्मरण करके मन में झूरता रहता है।
(५)अमान्य होने के कारण अपने शील और धर्म में जब साधु स्थिरचित्त होता है, तब तो वह अभ्युत्थान एवं आज्ञापालन आदि के रूप में सर्वमान्य होता है, किन्तु जब साधुधर्म से भ्रष्ट होकर गृहस्थ बन जाता है, तब उन्हीं सत्कार करने वाले लोगों द्वारा वह अमान्य हो जाता है, जिस प्रकार राजा के आदेश से किसी क्षुद्र गांव में नजरबंद किया हुआ नगर सेठ पश्चात्ताप करता है कि 'हाय! कहां तो नगर में सब लोग मेरी आज्ञा मानते थे, मैं सम्मानित होता था, कहां यह क्षुद्र गांव, जहां कोई भी मुझे पूछता तक नहीं ?' इसी प्रकार शीलधर्मभ्रष्ट साधु भी अमाननीय हो जाने के कारण शारीरिक एवं मानसिक दुःखों से पीड़ित होता रहता है।
(६) बुढ़ापा आने पर सरस भोजन के लोभ से मछली धीवरों द्वारा पानी में डाले हुए लोहे के कांटे को निगल जाती है। जब वह कांटा गले में अटक जाता है, तब वह पछताती है। इसी प्रकार संयम से पतित एवं ४. वही, पृ. १०११-१०१२ ५. दशवैकालिक (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ.१०१३
वही, पृ.१०१५ ७. वही, पृ. १०१६