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दशवकालिकसूत्र दृष्टि से निमित्तादि का कथन करना साधु के लिए वर्जित है।
नक्षत्र आदि का अर्थ-नक्षत्र कृत्तिका आदि जो नक्षत्र हैं, उनके विषय में बताना कि आज चन्द्रमा अमुक नक्षत्रयुक्त है, उसका फल ऐसा है। स्वप्न-फल स्वप्न का शुभाशुभ फल बताना। वशीकरणादि योग–अमुक औषध, जड़ी या खाद्यपदार्थों के संयोग से चूर्ण या वशीकरणयोग बना कर गृहस्थ को दूसरों को वश में करने के लिए देना। निमित्त अतीत, वर्तमान और भविष्य सम्बन्धी शुभ-अशुभ फल बताने वाली विद्या या ज्योतिष विद्या के बल से शुभाशुभ फल गृहस्थों को बताना। मन्त्र जपा जाने वाला शब्दसमूह, आकृति खींच कर कागज आदि पर लिखा जाने वाला यन्त्र तथा मन्त्र-यन्त्रसहित कठोर विधिपूर्वक सिद्ध किया जाने वाला तन्त्र। देवी को सिद्ध करने वाले मन्त्र को विद्या कहते हैं। मन्त्रादि का प्रयोग करना या बताना भी वर्जित है। भूयाहिगरणं एकेन्द्रिय आदि भूत कहलाते हैं, अथवा भूत शब्द सभी प्राणियों का वाचक है। संघट्टन, परितापन आदि के द्वारा उनका अधिकरण हनन करना भूताधिकरण है। कोई गृहस्थ यदि साग्रह पूछे तो कह देना चाहिए साधुओं का यह अधिकारक्षेत्र नहीं है। इससे अहिंसा और भाषा दोनों को सुरक्षा होगी।
'अत्तवं' आदि पदों का विशेषार्थ अत्तवं आत्मवान्—जिसकी आत्मा ज्ञान-दर्शन-चारित्रमय हो, अथवा आत्मार्थी पुरुष। दिटुं जिसे अपनी आंखों से देखा हो। मियं परिमित भाषा अर्थात् जितना आवश्यक हो, उतना ही बोलना। असंदिदं असंदिग्ध जिसमें किसी प्रकार का सन्देह न हो। पडिपन्नं प्रतिपर्ण अर्थात-ऐसा न हो कि वाक्य में केवल क्रिया हो परन्तु कर्ता और कर्म न हो, अथवा केवल कर्ता हो, क्रिया न हो। अथवा जो वचन स्वर, व्यंजन, पद आदि से रहित हो। वियं व्यक्त अर्थात् स्पष्ट हो, जो गुनगुनात्मक न हो। जियं—जो परिचित हो, जिसका अर्थ परिचित हो। अयंपिरं—अजल्पित—जो भाषा केवल बकवास या वाचालता न हो तथा अनुद्विग्न उद्वेगरहित हो।६०
आयारपन्नत्तिधरं दिट्ठिवायमहिज्जगं : विविध व्याख्याएँ (१) पहली व्याख्या शास्त्रपरक है, जो अर्थ में दी गई है। दूसरी व्याख्या भाषाशास्त्रपरक है। अर्थात् आचारधर स्त्री-पुरुष-नपुंसक लिंग-ज्ञाता, प्रज्ञप्तिधरलिंगों का विशेष ज्ञाता तथा दृष्टिवादधर-प्रकृति, प्रत्यय, लोप, आगम, वर्णविकार, कारक आदि व्याकरण के अंगों को जानने वाला। नियुक्तिकार के अनुसार इनकी व्याख्या धर्मकथापरक है। आक्षेपणी कथा के ४ प्रकार हैं५९. (क) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ८०९ (ख) गिहत्थाण पुच्छमाणाण णो णक्खत्तं कहेज्जा, जहा चंदिमा अज अमुकेण णक्खत्तेण जुत्तोत्ति । सुमिणे अव्वत्तदंसणे।
जोगो ओसह समवादो, अहवा निद्देसण-वसीकरणाणि जोगो भण्णइ । निमित्तंतीतादि । मंतो असाहणो, 'एगगाहणे गहणं तज्जातीयाणमिति काउं विज्जा गहिता । भूताणि-एगिंदियाईणि तेसिं संघट्टणपरितावणादीणि अहियं कीरंति जंमि तं भूताधिकरणं ।'
—जिनदासचूर्णि, पृ. २९९ (ग) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. ४१३ ६०. (क) दिटुं नाम जं चक्खुणा सयं उवलद्धं । मितं दुविहं सद्दओ परिमाणओ य । सद्दओ अणउव्वं उच्चारिजमाणं मितं,
परिमाणओ कज्जमेत्तं उच्चारिज्जमाणं मितं । पडुप्पन्नं नाम सर-वंजण-पयादीहिं उववेयं । -जिन.चू., पृ. २८९ (ख) अणुच्चं कज्जमेत्तं च मितं । वियं व्यक्तं । जितं न बामोहकरमणेकाकारं । नाणदंसणचरित्तमयो जस्स आया अत्थि सो अत्तवं ।
-अ. चू., पृ. १९७ (ग) दृष्टां दृष्टार्थं विषयाम् । जितां परिचिताम् ।
-हारि. वृत्ति, पत्र २३५