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प्रथम चूलिका : रतिवाक्या शिष्यों को आमंत्रित करने के लिए प्रयुक्त हैं, चूर्णिकार के मतानुसार दोनों आदरसूचक सम्बोधन हैं तथा अन्य व्याख्याकारों के अनुसार ये दोनों विस्मयसूचक या अपनी आत्मा के लिए सम्बोधन हैं। दुप्पजीवी : दुष्प्रजीवी : दो अर्थ (१) जीविका बड़ी मुश्किल से चलाते हैं। तात्पर्य यह है कि समर्थ व्यक्तियों के लिए भी जीविका (जीने के साधन) जुटाना कठिन है। दूसरों की तो बात ही क्या ? (२) दुःखपूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं। जिसके पास गृहस्थाश्रम योग्य कोई भी सामग्री नहीं है, उसे तो गृहस्थवास में विडम्बना और दुर्गति के अतिरिक्त और क्या मिल सकता है ? लहुस्सगा इत्तरिया : लघुस्वका इत्वरिका : भावार्थ —मानवीय कामभोग लघु अर्थात् —तुच्छ या असार हैं, अर्थात् सर्वथा सारहीन हैं और इत्वरिक यानी अल्पकालिक हैं, देवों के समान वे चिरस्थायी नहीं हैं।
'साइबहुला' आदि पदों का तात्पर्य साइबहुला सातिबहुल : दो अर्थ (१) मायाबहुल, (२) अविश्वस्त प्रचुर। बहुत-से मानव इस काल में छली-कपटी एवं विश्वासघाती हैं, उन मनुष्यों में रहकर सुख कैसे मिल सकता है ? वे तो प्रायः दुःख ही देते रहते हैं। न चिरकालोवट्ठाइ–नचिरकालोपस्थायि—किसी कारणवश उत्पन्न हुए ये दुःख चिरस्थायी नहीं हैं। ये भी रथ के चक्र की तरह बदलते जाते हैं। फिर इस कष्ट को सहने से कर्मों की निर्जरा और शाश्वत सुख की प्राप्ति होगी। नहीं सहन किया तो मरने के बाद नरकादि दुर्गतियों में जाना होगा, जहां इससे भी अनेकगुना कष्ट भोगना पड़ेगा। ओमजणपुरक्कारे—अवमजन-पुरस्कार : आशय यहां संयमी जीवन में स्थिर रहने से तो राजा-महाराज, धनाढ्य आदि मेरा सत्कार-सम्मान एवं भक्ति करते हैं, किन्तु गृहवास में जाने पर मुझे नीच मनुष्यों की सेवा, भक्ति, चापलूसी, खुशामद आदि करनी पड़ेगी, उनके असह्य वचन भी सहने पड़ेंगे। वंतस्स पडिआइयणं जिन विषयभोगों का मैं वमन (त्याग) कर चुका हूं, उनका गृहवास में जाकर पुनः आसेवन करना श्रेष्ठ जन का कार्य नहीं है। वमन किया हुआ तो कुत्ता, गीदड़ आदि नीच जीव ही ग्रहण करते हैं, प्रव्रजित होने से मैं श्रेष्ठ जन हूं, अतः मेरे लिए त्यक्त विषयभोगों का पुनः सेवन करना उचित नहीं है। दुल्लहे गिहीणं धम्मे– जो व्यक्ति पहले से गृहवास में रहते हैं, वे तो श्रद्धापूर्वक थोड़ा-सा धर्माचरण कर लेते हैं, किन्तु जो साधुजीवन छोड़कर गृहवास में जाते हैं, वे न घर के रहते हैं, न घाट के। उनकी श्रद्धा धर्म से हट जाती है, उनके लिए गृहस्थी में रह कर धर्माचरण करना तो और भी दुष्कर है। अथवा गृहस्थ में पुत्र-कलत्रादि का स्नेहबन्धन पाश है। में फंसे हुए गृहस्थ से भी धर्माचरण होना दुष्कर है, प्रमादवश धर्मश्रवण भी दुर्लभ है। आयंके से वहाय आतंक का अर्थ है
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(क) दुक्खं दुविधं शारीरं माणसं वा । तत्थ सारीरं सीउण्हदंसमसगाइ, माणसं इत्थी-निसीहियसक्कारपुरक्कार
परीसहादीणं । एवं दुविहं दुक्खं उप्पन्नं जस्स तेण उप्पण्णदुक्खेण अवहावणं अवसप्पणं अतिक्कमणं, संजमातो अवक्कमणमवहावणं । जाणवत्तं–पोतो, तस्स पडागा-सीतपडो, पोतोऽवि सीतपडेण विततेण वीचिहिं ण खोभिज्जति, इच्छितं च देसं पाविजिति ।हं भोत्ति सम्बोधनद्वयमादराय । दुप्पजीवी नाम दुक्खेण प्रजीवणं,आजीविआ।
-जिनदासचूर्णि, पृ. ३५३ (ख) हं भो—शिष्यामंत्रणे । दुःखेन-कृच्छ्रेण प्रकर्षणोदारभोगापेक्षया जीवितुं शीला दुष्प्रजीविनः ।
-हारि. वृत्ति, पत्र २७२ (ग) जाणवत्तं पोतो, तस्स पडागारो—सीतपडो । ....दुक्खं एत्थ पजीवसाधगाणि संपातिज्जंतीति ईसरेहिं किं पुण सेसेहिं?
रायादियाण चिंताभरेहि, वाणियाण भंडविणएहिं, सेसाण पेसणेहिं य जीवणसंपादणं दुक्खं । लहुसगा-इत्तरकाला कदलीगब्भवदसारगा जम्हा गिहत्थभोगे चतिऊण रतिं 'कुणइ धम्मे ।'
-अगस्त्यचूर्णि (घ) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ९९९