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दशवैकालिकसूत्र शीघ्रघाती रोग । गृहस्थवास में धर्मरहित व्यक्ति को या निर्धन व्यक्ति को ये हैजा आदि रोग बहुत जल्दी धर दबाते हैं
और साधना एवं साधन के अभाव में तुरन्त ही ये जीवन का खेल खत्म कर देते हैं। संकप्पे से वहाय आतंक शारीरिक रोग है और संकल्प मानसिक रोग । इष्ट के वियोग और अनिष्ट के संयोग से जो मानसिक आतंक होता है, उसे यहां संकल्प कहा गया है। क्षण-क्षण में होने वाली सुख दुःखों की चोटों से मनुष्य गृहवास में सदा घायल, उदास एवं आहत रहता है। बुरा संकल्प भी एक दृष्टि से आध्यात्मिक मृत्यु है। शरीर छूटना तो भौतिक मरण है, दुःसंकल्प-विकल्प से आत्मा का पतन होना भी वास्तव में आध्यात्मिक मरण है। सोवक्केसे गिहवासे निरुवक्केसे परियाए : भावार्थ कृषि, वाणिज्य, पशुपालन, आश्रितों का भरणपोषण, तेल-लवण-लकड़ी आदि जुटाने की नाना चिन्ताओं के कारण गहवास क्लेशमय है, फिर आधि, व्याधि और उपाधि तथा आजीविका आदि का | मानसिक सन्ताप होने के कारण गृहस्थवास उपक्लेशयुक्त है, जबकि मुनिपर्याय इन सभी चिन्ताओं और क्लेशों से दूर होने तथा निश्चिन्त होने से क्लेशमुक्त है। पर्याय का अर्थ यहां प्रव्रज्याकालीन अवस्था या दशा अथवा मुनिव्रत है।बंधे गिहवासे मोक्खे परियाए : तात्पर्य गृहवास बन्धन रूप है, क्योंकि इसमें जीव मकड़ी की तरह स्वयं स्त्री पुत्र-परिवार आदि का मोहजाल बुनता है और स्वंय ही उसमें फंस जाता है, जबकि मुनिपर्याय कर्मक्षय करके मोक्षप्राप्ति करने और बन्धनों को काटने का सुस्रोत है। सावज्जे गिहवासे अनवज्जे परियाए : भावार्थ -गृहवास पापरूप है, क्योंकि इसमें हिंसा, झूठ, चोरी (करचोरी आदि), मैथुन और ममत्वपूर्वक संग्रह, परिग्रह आदि सब पापमय कार्य करने पड़ते हैं। इसके विपरीत मुनिपर्याय में उक्त पापजनक कार्यों का सर्वथा त्याग किया जाता है। आरम्भ, परिग्रहादि को इसमें कोई स्थान ही नहीं है।
बहुसाहारणा गिहीणं कामभोगा-गृहस्थों के कामभोग बहुत ही साधारण हैं, इसका एक अर्थ यह भी है कि देवों के कामभोगों की अपेक्षा मानवगृहस्थों के कामभोग बहुत नगण्य हैं, सामान्य हैं। दूसरा अर्थ यह है कि गृहस्थों के कामभोग बहुजनसाधारण हैं, उनमें राजा, चोर, वेश्या आदि लोगों का भी हिस्सा है। इसलिए सांसारिक कामभोग बहुत ही साधारण हैं। पत्तेयं पुण्णपावं जितने भी प्राणी हैं, वे सब अपने-अपने किए हुए शुभाशुभ कर्मों का फल स्वयं भोगते हैं। किसी के किए हुए कर्मों का फल कोई अन्य नहीं भोग सकता। स्त्रीपुत्रादि मेरे कर्मों के फल भोगने में हिस्सा नहीं बंटा सकते। फिर मुझे गृहवास में जाने से क्या प्रयोजन ?
मणुआण जीविए.....चंचले मनुष्य का जीवन क्षणभंगुर है। रोगादि उपद्रवों के कारण देखते ही देखते नष्ट हो जाता है, अतः क्षणविनाशी मानवीय जीवन के तुच्छभोगों के लिए मैं क्यों अपना साधुजीवन छोड़ कर गृहवास स्वीकार करूं? बहुं मे पावकम्मं कडं : तात्पर्य—मैंने बहुत ही पापकर्म किए हैं, जिनके उदय से मेरे शुद्ध हृदय में इस प्रकार के अपवित्र विचार उत्पन्न होते हैं। जो पुण्यशाली पुरुष होते हैं, उनके विचार तो चारित्र में सदैव स्थिर एवं दृढ़ रहते हैं। पापकर्मों के उदय से ही मनुष्य अध:पतन की ओर जाता है। वेयइत्ता मोक्खो , नत्थि अवेयइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता—प्रमाद, कषाय आदि के वशीभूत होकर मैंने पूर्वजन्म में जो पापकर्म किए हैं, उन्हें भोगे बिना मोक्ष नहीं मिल सकता। कृतकर्मों को भोगें बिना दुःखों से छुटकारा नहीं मिल सकता, अतः क्यों न मैं इस आई हुई विपत्ति को भोगू ? इसे भोगने पर ही दुःखों से छुटकारा मिलेगा। जैन सिद्धान्त के अनुसार—बद्ध कर्म की मुक्ति के दो उपाय हैं—(१) स्थिति परिपाक होने पर उसे भोगने से, अथवा (२) तपस्या द्वारा कर्मों को क्षीणवीर्य करके नष्ट कर देने से। सामान्यतया कर्म अपनी स्थिति पकने पर फल देता है, परन्तु तप के द्वारा स्थिति पकने से पूर्व ही कर्मों