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दशवकालिकसूत्र (५) (संयम छोड़ देने पर गृहवास में) नीच जनों का पुरस्कार-सत्कार (करना पड़ेगा।)
(६) (संयम का त्याग कर पुनः गृहस्थवास में जाने का अर्थ है—) वमन किए हुए (विषयभोगों) का वापिस पीना।
(७) संयम को छोड़ कर गृहवास में जाने का अर्थ है—नीच गतियों में निवास को चला कर स्वीकार (करना)।
(८) अहो! गृहवास में रहते हुए गृहस्थों के लिए शुद्ध धर्म (का आचरण) निश्चय ही दुर्लभ है।
(९) वहां आतंक (विसूचिका आदि घातक व्याधि) उसके (धर्महीन गृहस्थ के) वध (घात) का कारण होता है।
___ (१०) वहां (प्रिय के वियोग और अप्रिय के संयोग से उत्पन्न) संकल्प (-विकल्प) वध (विनाश) के लिए होता है।
(११) गृहवास (सचमुच) क्लेश-युक्त है, (जबकि) मुनिपर्याय (साधु-अवस्था) क्लेशरहित है। (१२) गृहवास बन्ध (कर्मबन्धजनक) है, (जबकि) श्रमणपर्याय मोक्ष (मोक्ष का स्रोत) है। (१३) गृहवास सावध (पापयुक्त) है, (जबकि) मुनिपर्याय अनवद्य (पाप-रहित) है। (१४) गृहस्थों के कामभोग बहुजन-साधारण हैं। (१५) प्रत्येक के पुण्य और पाप अपने-अपने हैं।
(१६) ओह! मनुष्यों का जीवन कुश के अग्र भाग पर स्थित जलबिन्दु के समान चंचल है, इसलिए निश्चय ही अनित्य है।
(१७) ओह ! मैंने (इससे पूर्व) बहुत ही पापकर्म किये हैं।
(१८) ओह! दुष्ट भावों से आचरित तथा दुष्पराक्रम से अर्जित पूर्वकृत पापकर्मों का फल भोग लेने पर ही मोक्ष होता है, बिना भोगे मोक्ष नहीं होता, अथवा तप के द्वारा (उन पूर्व कर्मों का) क्षय करने पर ही मोक्ष होता है। यह अठारहवां पद है। _ विवेचन संयम में अस्थिर चित्त के लिए अठारह प्रेरणा सूत्र प्रस्तुत सूत्र में प्रव्रजित मुनि को किसी कारणवश संयम से विचलित हो जाने पर अस्थिरता-निवारणार्थ १८ प्रेरणासूत्र दिये गए हैं।
'उप्पन्नदुक्खेणं' आदि पदों के विशेषार्थ उप्पन्नदुक्खेणं जिसे शीत, उष्ण आदि परीषह रूप शारीरिक दुःख या कामभोग, सत्कार-पुरस्कार आदि मानसिक दुःख उत्पन्न हो गए हैं। ओहाणुप्पेहिणा-अवधावनोत्प्रेक्षिणा अवधावन का अर्थ पीछे हटना या अतिक्रमण करना है। यहां अवधावन का अर्थ है–संयम का परित्याग करके वापस गृहस्थाश्रम में चला जाना। अवधावन की अभिलाषा जिसके मन में उठी है, वह अवधावनोत्प्रेक्षी है। अणोहाइएणं-अनवधावितेन—परन्तु अभी तक संयम छोड़ कर गृहस्थवास में गया नहीं है। पोय-पडागापोतपताका या पोतपटागार—(१) जहाज की पताका अर्थात् वस्त्र का बना हुआ पाल। जिसके तानने पर नौका लहरों से क्षुब्ध नहीं होती, उसे अभीष्ट स्थान की ओर ले जाया जा सकता है। संपडिलेहियव्वाइं सम्प्रतिलेखितव्यानि–सम्यक् प्रकार से मननीय-विचारणीय हैं। तात्पर्य यह है कि इन अठारह स्वर्ण-सूत्रों का गहरा चिन्तन-मनन करने से संयम से अस्थिर हुआ मन स्थिर हो जाता है। हं भो! हे और भो! ये दोनों शब्द वृत्तिकार के मतानुसार