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दशवैकालिकसूत्र
[४५२] (जो साधक) गर्व, क्रोध, माया और प्रमादवश गुरुदेव के समीप विनय नहीं सीखता, ( उसके ) वे (अहंकारादि दुर्गुण) ही वस्तुतः उस (साधु) के ज्ञानादि वैभव के (उसी प्रकार ) विनाश के लिए होते हैं, जिस प्रकार बांस का फल उसी के विनाश के लिए होता है ॥ १ ॥
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[४५३] जो (अविनीत साधु) गुरु की 'ये मन्द (मन्दबुद्धि) हैं, ये अल्पवयस्क हैं तथा अल्पश्रुत हैं, ऐसा जान कर हीलना करते हैं, वे मिथ्यात्व को प्राप्त करके गुरुओं की आशातना करते हैं ॥ २॥
[४५४] कई (वयोवृद्ध आचार्य) स्वभाव (प्रकृति) से ही मन्द होते हैं और कोई अल्पवयस्क (होते हुए) भी श्रुत (शास्त्रज्ञान) और बुद्धि से सम्पन्न होते हैं। वे आचारवान् और गुणों में सुस्थितात्मा (आचार्य चाहे मन्द हों या प्राज्ञ) अवज्ञा (हीलना) किये जाने पर (गुणराशि को उसी प्रकार) भस्म कर डालते हैं, जिस प्रकार इन्धनराशि को अग्नि ॥ ३ ॥
[ ४५५] जो कोई (अज्ञ साधक) सर्प को 'छोटा बच्चा है' यह जान कर उसकी आशातना (कदर्थना) करता है, वह (सर्प) उसके अहित के लिए होता है, इसी प्रकार (अल्पवयस्क) आचार्य की भी अवहेलना करने वाला मन्दबुद्धि भी संसार में जन्म-मरण (या एकेन्द्रियादि जाति) के पथ पर गमन (परिभ्रमण ) करता है ॥ ४ ॥
[४५६] अत्यन्त क्रुद्ध हुआ भी आशीविष सर्प जीवन- नाश से अधिक और क्या कर सकता है ? परन्तु अप्रसन्न हुए पूज्यपाद आचार्य तो अबोधि के कारण बनते हैं, (जिससे आचार्य की) आशातना से मोक्ष नहीं मिलता ॥ ५॥
[४५७] जो प्रज्वलित अग्नि को (पैरों से) लांघता-मसलता है, अथवा आशीविष सर्प को (छेड़कर) कुपित करता है, या जीवितार्थी (जीवित रहने का अभिलाषी) होकर (भी) जो विषभक्षण करता है, ये सब उपमाएँ गुरुओं की आशातना के साथ ( घटित होती हैं) ॥ ६॥
[४५८] कदाचित् वह (प्रचण्ड) अग्नि ( उस पर पैर रख कर चलने वाले को) न जलाए, अथवा कुपित हुआ आशीविष सर्प भी (छेड़खानी करने वाले को) न डसे, इसी प्रकार कदाचित् वह हलाहल (नामक तीव्र विष) भी (खाने वाले को) न मारे, किन्तु गुरु की अवहेलना से ( कदापि ) मोक्ष सम्भव नहीं है ॥ ७ ॥
[४५९] जो (मदान्ध) पर्वत को सिर से फोड़ना चाहता है, अथवा सोये हुए सिंह को जगाता है, या जो शक्ति (भाले) की नोंक पर (हाथ-पैर आदि से) प्रहार करता है, गुरुओं की आशातना करने वाला भी इनके तुल्य है ॥ ८ ॥
[४६०] सम्भव है, कोई अपने सिर से पर्वत का भी भेदन कर दे, कदाचित् कुपित हुआ सिंह भी (उस जगाने वाले को) न खाए, अथवा सम्भव है भाले की नोंक भी ( उस पर प्रहार करने वाले का) भेदन न करे, किन्तु गुरु की अवहेलना से मोक्ष ( कदापि ) सम्भव नहीं है ॥ ९ ॥
[४६१] आचार्यप्रवर के अप्रसन्न होने पर बोधिलाभ नहीं होता तथा ( उनकी) आशातना से मोक्ष नहीं मिलता। इसलिए निराबाध (मोक्ष) सुख चाहने वाला साधु गुरु की प्रसन्नता (कृपा) के अभिमुख होकर प्रयत्नशील रहे ॥ १० ॥
विवेचन- गुरु की आशातना के फल का निरूपण - प्रस्तुत १० गाथाओं ( ४५२ से ४६१ ) में गुरुओं