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नवम अध्ययन : विनयसमाधि
३२९ 'कालं' आदि पदों की व्याख्या कालं काल को देखकर, अर्थात् —यह कौन-सी ऋतु है ?, रात है या दिन ? कैसी परिस्थिति है गुरुजी की ? उपयुक्त अवसर है या नहीं? इत्यादि सब जाने । यथा शरद आदि ऋतुओं के अनुकल भोजन, शय्या आसन आदि लाए । छंदं गुरु के अभिप्राय (इच्छा, चेष्टा, इंगित, आकार आदि) को जाने कि गुरुजी इस समय क्या चाहते हैं ? इन्हें इस समय किस वस्तु की आवश्यकता है ? किस कार्यसिद्धि के लिए इनके हृदय में विचार-प्रवाह बह रहा है ? देश-काल के अनुसार रुचियां भी विभिन्न होती हैं। जैसे किसी को ग्रीष्म ऋतु में छाछ प्रिय होती है, किसी को सत्तु आदि। क्षेत्र के आधार पर भी रुचि-परिवर्तन होता है, जैसे—ठंडे प्रदेश में गर्म पेय और गर्म प्रदेश में शीतल पेय अभीष्ट होता है। उवयारं : उपचार : तीन अर्थ—(१) विधि (सेवा की विधियां), (२) आराधना के प्रकार, अथवा (३) आज्ञा क्या है, इसे जान कर। हेउहिं हेतुओं से अर्थात् —नानाविध हेतुओं–तर्क-वितर्को, ऊहापोहों, अनुमानों, स्वयं स्फुरणाओं आदि से देश, काल, अभिप्राय एवं सेवा के प्रकारों को जाने। तात्पर्य यह है कि गुरुमहाराज के कहे बिना ही उनके शरीर की दशा आदि से जान ले। यथा—कफ का प्रकोप देखे तो कफनाशक पदार्थों का सेवन कराए, इसी प्रकार वात या पित्त का प्रकोप देखे तो वातनाशक या पित्तनाशक पदार्थों का सेवन कराए।३ अविनीत और विनीत को सम्पत्ति, मुक्ति आदि की अप्राप्ति एवं प्राप्ति का निरूपण ४८९. विवत्ती अविणीयस्स, संपत्ती विणीयस्स या ।
जस्सेयं दुहओ नायं, सिक्खं से अभिगच्छई ॥ २१॥ ४९०. जे यावि चंडे मइइड्डि-गारवे पिसुणे नरे साहस हीणपेसणे ।
अदिट्ठधम्मे विणए अकोविए असंविभागी न हु तस्स मोक्खो ॥ २२॥ ४९१. निद्देसवत्ती पुण जे गुरुणं सुयत्थधम्मा विणयम्मि कोविया । तरित्तु ते ओहमिणं दुरुत्तरं, खवित्तु कम्मं गइमुत्तमं गया ॥ २३॥
–त्ति बेमि ॥ ॥विणयसमाहीए बीओ उद्देसओ समत्तो ॥
१२. (ख) 'णीयां गई' णाम ण आयरियाण पिट्टओ गंतव्वं, तमिवि णो अच्चासन्नां न वा अतिदूरेण गंतव्वं । अच्चासन्ने ताव
पादरेणुणा आयरियसंघट्टण-दोसो भवई, अइदूरे पडिणीय-आसायणादि बहवेदोसा भवंतीति ।तहा नीययरे पीढगाइंमि आसणे आयरिअणुनाए उवविसेज्जा । जइ आयरिओ आसणे, इतरो भमिए नीययरे भमिप्पदेसे वंदमाणो उवट्रिओ न वंदेज्जा, किंतु जाव सिरेण फुसे पादे तावणीयं वंदेज्जा । तहा अंजलिमवि कुव्वमाणेण णो पहाणम्मि उवविदेण अंजली कायव्वा, किन्तु ईसिअवणएण कायव्वा ।
-जिनदासचूर्णि, पृ. ३१५ १३. (क) 'जधा कालं जोग्गं भोजणासणादि उवणेयं ।'
-अगस्त्यचूर्णि (ख) जिनदास चूर्णि: तत्थ सरदि वात-पित्तहराणि दव्वाणि आहरिज्जा....'छंदो नाम इच्छा भण्णइ'। उवयार'णाम विधी भण्णइ ।
-जिनदासचूर्णि, पृ. ३१६ (ग) उवयारो आणा को ति आणत्तिआए तसति ।
-अगस्त्यचूर्णि (घ) उपचारं आराधना-प्रकारम् ।।
-हारि. वृत्ति, पत्र २५० (ङ) दशवै. पत्राकार (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ.८९५-८९६