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दशवैकालिकसूत्र
५०४. जे माणिया सययं माणयंति,
जत्तेण कन्नं व निवेसयंति । ते माणए माणरिहे तवस्सी,
- जिइंदिए सच्चरए, स पुज्जो ॥ १३॥ ५०५. तेसिं गुरूणं गुणसागराणं,*
सोच्चाण मेहावि सुभासियाई । चरे मुणी पंचरए तिगुत्तो,
चउक्कसायावगए, स पुज्जो ॥ १४॥ ___ [४९२] जिस प्रकार आहिताग्नि (अग्निहोत्री ब्राह्मण) अग्नि की शुश्रूषा करता हुआ जाग्रत (सावधान) रहता है, उसी प्रकार जो आचार्य की शुश्रूषा करता हुआ जाग्रत रहता है तथा जो आचार्य के आलोकित (दृष्टि या चेहरे) एवं इंगित (चेष्टा) को जान कर उनके अभिप्राय की आराधना करता है, वही (शिष्य) पूज्य होता है ॥ १॥
[४९३] जो (शिष्य) आचार के लिए विनय (गुरुविनय-भक्ति) का प्रयोग करता है, जो (आचार्य के वचनों को) सुनने की इच्छा रखता हुआ (उनके) वचन को ग्रहण करके, उपदेश के अनुसार कार्य (या आचरण) करना चाहता है और जो गुरु की आशातना नहीं करता, वह पूज्य होता है ॥ २॥
[४९४] अल्पवयस्क होते हुए भी (दीक्षा) पर्याय में जो ज्येष्ठ हैं, (उन सब पूजनीय) रत्नाधिकों के प्रति जो (साधु) विनय का प्रयोग करता है, (जो सर्वथा) नम्र हो कर रहता है, सत्यवादी है, गुरु की सेवा में रहता है, (या उन्हें प्रणिपात करता है) और जो गुरु के वचनों (आदेशों) का पालन करता है, वह पूज्य होता है॥३॥
[४९५] जो (साधक) संयमयात्रा के निर्वाह (या जीवन-यापन) के लिए सदा विशुद्ध सामुदायिक (तथा) अज्ञात (अपरिचित कुलों से) उञ्छ (भिक्षा) चर्या करता है, जो (आहारादि) न मिलने पर (मन में) विषाद नहीं करता और मिलने पर श्लाघा नहीं करता, वह पूजनीय है ॥ ४॥
[४९६] जो (साधु) संस्तारक (बिछौना), शय्या, आसन, भक्त (भोजन) और पानी का अतिलाभ होने पर भी (इनके विषय में) अल्प इच्छा रखने वाला है, इस प्रकार जो अपने आप को (थोड़े में ही) सन्तुष्ट रखता है तथा जो सन्तोष-प्रधान जीवन में रत है, वह पूज्य है ॥५॥
[४९७] मनुष्य (धन आदि के लाभ की) आशा से लोहे के (लोहमय) कांटों को उत्साहपूर्वक सहन कर सकता है किन्तु जो (किसी भौतिक लाभ की) आशा के बिना कानों में प्रविष्ट होने वाले तीक्ष्ण वचनमय कांटों को सहन कर लेता है, वही पूज्य होता है ॥६॥ .
[४९८] लोहमय कांटे केवल मुहूर्त्तभर (अल्पकाल तक) दुःखदायी होते हैं, फिर वे भी (जिस अंग में लगे हैं) उस (अंग) में से सुखपूर्वक निकाले जा सकते हैं। किन्तु वाणी से निकले हुए दुर्वचनरूपी कांटे कठिनता से निकाले जा सकने वाले, वैर की परम्परा बढ़ाने वाले और महाभयकारी होते हैं ॥७॥
पाठान्तर-
* सायराणं ।