Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shayyambhavsuri, Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 441
________________ दशवैकालिकसूत्र पुढविसमे हविज्जा — जिस प्रकार पृथ्वी आक्रोश, हनन और तक्षण करने पर भी सब सह लेती है, तथैव मुनि को भी आक्रोश, हनन आदि को क्षमाभाव से सहना चाहिए। अनियाणे : अनिदान — निदान से रहित। जो साधक मनुष्यभव- प्राप्ति, ऋद्धि आदि के निमित्त तप-संयम नहीं करता अथवा जो भावी फलाशंसा से रहित होता है, वह अनिदान कहलाता है । परीसहाई : परीषह— कर्मनिर्जरा ( आत्मशुद्धि) एवं श्रमणनिर्ग्रन्थमार्ग से च्युत न होने के लिए जो अनुकूल और प्रतिकूल स्थितियां और मनोभाव सहे जाते हैं, उन्हें परीषह कहते हैं । वे क्षुधा आदि २२ हैं। जाइपहाओ : दो रूप : दो अर्थ – (१) जातिपथ —— संसार । जाति-वध — जाति का अर्थ है— जन्म और वध का अर्थ है— मरण । तवे रए सामणिए : भवे रए सामणिए : दो अर्थ – (१) जो श्रमणसम्बन्धी तप में रत रहता है और (२) जो श्रामण्य (श्रमणभाव या श्रमणधर्म) में रत रहता है । १४ ३५८ १३. १४. (ग) ग्रामकण्टकान् -गामा - इन्द्रियाणि, तदुःखहेतवः कण्टकास्तान् स्वरूपत एवाह आक्रोशान् प्रहारान् (कशादिभिः) तर्जनाश्च । भैरवभया - अत्यन्तरौद्रभयजनकाः शब्दाः सप्रहासा यस्मिन् स्थान इति गम्यते, तत्तथा तस्मिन् वैतालदिकृतार्त्तनादाट्टहास इत्यर्थः । पतिमां मासादिरूपां । — हारि. वृत्ति, पत्र २६७ (घ) भयं पसिद्धं, भयं च भेरवं, न सव्वमेव भयं भेरवं, किन्तु तत्थवि जं अतीव दारुणं भयं तं भैरवं भण्णइ । वेतालगणादयो भयभेरवकायेण महता सद्देण जत्थ ठाणे पहसंति सप्पहासे, तं ठाणं भयभेरवसप्पहासं भण्णइ । (ङ) 'पच्चवायो — भयं रोद्दं भैरवं वैतालकालिवादीण सद्दो । भयभेरवसद्देहिं समेच्च पहसणं भयभेरवसद्दसंपहासो | तंमि समुत्थिते । ' (य) जधा सक्कभिक्खूण एस उवदेसो मासाणिगेण भवितव्वं, ण य ते तम्मि बिभेंति, तम्मत- णिसेधणत्थं विसेसिज्जति । — अगस्त्यचूर्णि दशाश्रुत स्कन्ध ७ दशा. (छ) वोसट्ठो चत्तो य देहो जेण, सो वोसट्ठ- चत्तदेहो । वोसट्ठो पडिमादिसु विनिवृत्तक्रियो, ण्हाणुमद्दणातिविभूषाविरहितो — अगस्त्यचूर्ण चो | (ज) ण य सरीरं तेहि उवसग्गेहिं वाहिज्जमाणोऽवि अभिकखइ, जहा – जइ मम एतं सरीरं न दुक्खाविज्जेज्जा, ण वा विणिस्सिजेज्जा । वोसटठं ति वा वोसिरियं ति वा एगट्ठा । - जिनदासचूर्णि, पृ. ३४४ (झ) ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि । -आवश्यक ४ (ञ) व्युत्सृश्टो भावप्रतिबन्धाभावेन त्यक्तो विभूषाकरणेन देहः । — हारि. वृत्ति, पत्र २६७ (क) जहा पुढ़वी अक्कुस्समाणी हम्ममाणी भक्खिज्जमाणी च न य किंचि पओसं वहइ, तहा भिक्खुणावि सव्वफासविसण व्वं । (ख) माणुस - रिद्धिनिमित्तं तव-संजमं न कुव्वइ, से अणियाणे । (ग) अनिदानो— भाविफलांशसारहितः । (घ) मार्गाऽच्यवन-निर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः । —जिनदासचूर्णि, पृ. ३४५ — हारि. वृत्ति, पत्र २६७ __ तत्त्वार्थ. ९/८ अ. चू. (ङ) जातिग्गहणेण जम्मणस्स..... वधग्गहणेण मरणस्स गहणं कयं । (च) जातिपथात् — संसारमार्गात् । तपसि रतः तपसि रक्तः । किम्भूत इत्याह- श्रामण्ये - श्रमणानां सम्बन्धिनिशुद्धे इति - हारि. वृत्ति, पत्र २६७ -अगस्त्यचूर्णि भावः । (छ) 'भवे रते सामणिए' – समणभावो सामणियं, तम्मि रतो भवे ।

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