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दशवकालिकसूत्र से ऊपर उठकर आत्मभाव में ही लीन रहता है।
उवहिम्मि अमुच्छिए अगढिए : आशय मूर्छा और गृद्धि एकार्थक होते हुए भी कुछ अन्तर बताते हुए जिनदास महत्तर कहते हैं यहां मूर्छा मोहग्रस्तता के अर्थ में और गृद्धि प्रतिबद्धता के अर्थ में समझना चाहिए। उपधि आदि साधनों में मूच्छित रहने वाला साधक करणीय-अकरणीय का विवेक नहीं कर पाता और गृद्ध रहने वाला उनसे प्रतिबद्ध हो जाता है, अतः आदर्श भिक्षु उपधि में अमूछित और अगृद्ध रहता है। साथ ही वह किसी क्षेत्र या किसी गृहस्थ से प्रतिबद्ध नहीं होता।
अनाय-उंछं पुल निप्पुलाए : विशेषार्थ अज्ञात उंछ का आशय है—जो अज्ञात कुलों से भिक्षा करता है तथा पुल निप्पुलाए—पुलाक-निष्पुलाक का भावार्थ है—संयम को सारहीन कर देने वाले दोषों से रहित। अथवा मूलगुण-उत्तरगुण में दोष लगाकर संयम को निस्सार न करने वाला।८.
सव्वसंगावगए : सर्वसंगापगत–संग का अर्थ यहां इन्द्रियविषय किया गया है। अतः सर्वसंग अर्थात् समस्त इन्द्रियविषयों से रहित।
अलोल—जो अप्राप्त रसों की लालसा नहीं करता, वह अलोल है। सरस पदार्थों का त्याग करने के बाद भी अन्तर की गहराई में उन पदार्थों की वासना रह जाती है, जिनका त्याग करना ही वास्तविक त्याग है।
इडि ऋद्धि ऋद्धि का अर्थ यहां योगजन्य विभूति अर्थात् वैक्रियलब्धि आदि है।ठियप्पा :स्थितात्माजिसकी आत्मा ज्ञान, दर्शन और चारित्र में स्थित होती है।" ___न परं वएज्जासि०' इत्यादि गाथा की व्याख्या 'पर' का अर्थ यहां गृहस्थ या वेषधारी साधु है। क्योंकि प्रव्रजित का पर—अप्रव्रजित होता है। जो गृहस्थ या वेषधारी है। दूसरे को 'यह दुराचारी है' ऐसा कहने से उसे चोट लगती है, अप्रीति उत्पन्न होती है, इसलिए गृहस्थ हो या वेषधारी अव्यवस्थित आचार वाला साधु हो तो भी यह कुशील है' इस प्रकार का व्यक्तिगत आरोप करना, अहिंसक मुनि के लिए उचित नहीं है। क्योंकि सबके अपने
१७. मुच्छासद्दो गिद्धिसद्दो य दोऽवि एगट्ठा....अहवा मुच्छिय-गढियाण इमो विसेसो भण्णइ । तत्थ मुच्छासद्दो मोहे....गढियसद्दो
पडिबंधे दग़व्वो । जहा कोइ मुच्छिओ तेण मोहकारणेण कज्जाकजं न याणइ, तहा सोऽवि भिक्खू उवहिंमि अज्झोववण्णो मुच्छिओ किर कज्जाकजं न याणइ । तम्हा ण मुच्छिओ अमुच्छिओ, अगिद्धिओ अबद्धो (अपडिबद्धो) भण्णइ....
-जिनदासचूर्णि, पृ. ३४६ १८. (क) जेण मूलगुण-उत्तरगुणपदेण पडिसेविएण णिस्सारो संजमो भवति, सो भावपुलाओ । एत्थ भावपुलाएण अहिगारो।
....तेण भावपुलाएण निपुलाए भवेजा, णो तं कुवेज्जा, जेण पुलागो भवेज त्ति । —जिनदासचूर्णि, पृ. ३४६ (ख) तं पुलएति—तमेसति एस अण्णायउंछपुलाए । मूलगुण-उत्तरगुणपडिसेवणाए निस्सारं संजमं करेंति एस भावपुलाए तधा णिपुलाए ।
-अगस्त्यचूर्णि (ग) पुलाक-निष्पुलाक इति संयमासारतापाददोषरहितः ।
—हारि. वृत्ति, पत्र २६८ १९. (क) संगोत्ति वा इंदियपत्थोत्ति वा एगट्ठा ।
(ख) इड्ढि-विउव्वणमादि । (ग) नाणदंसणचरित्तेसु ठिओ अप्पा जस्स सो ठियप्पा ।
-जिनदासचूर्णि, पृ. ३४६ (घ) अलोलो नाम नाप्राप्तप्रार्थनपरः ।
-हारि. वृत्ति, पत्र २६८