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दशवैकालिकसूत्र पीता या नो प्रत्यादत्ते—पुनः ग्रहण सेवन नहीं करता।'
कठिन शब्दार्थ सुनिसयं : सुनिशितं सुतीक्ष्ण। रोइय-रुचि श्रद्धा रख कर। पंचासवसंवरे—पांच इन्द्रियां पंचास्रवद्वार हैं, अथवा हिंसादि पांच आस्रव हैं, उन पांच आस्रवों को रोकता है। अत्तसमे मन्निज छप्पिकाएछहकाय के जीवों को आत्मवत् मानता है, अर्थात् —उनके सुख-दुःख जीवन-मरण को अपने समान समझता है। पंचमहव्वयाई फासे पांच महाव्रतों का स्पर्श पालन करता है। अनिलेण—पंखे आदि वायुव्यंजक साधन से।
पुढविं न खणे० इत्यादि का आशय–सचित्त पृथ्वी में जीव हैं, इसी प्रकार सचित्त जल, अग्नि, वायु एवं वनस्पति में जीव हैं, इनकी हिंसा विविध प्रकार से हो सकती है, जिसका विस्तृत वर्णन चतुर्थ अध्ययन में किया गया है। यहां पृथ्वी को न खोदे, सचित्त जल न पीए, अग्नि न जलाए, पंखे आदि से हवा न करे, हरी वनस्पति को न छेदे, इत्यादि इन पांच स्थावरों (एकेन्द्रिय जीवों) की हिंसा करने-कराने के एक-एक प्रकार का निषेध किया गया है। अर्थात्—यहां पृथ्वी आदि प्रत्येक स्थावर जीव के साथ उसके एक प्रकार का और एक ही क्रिया से हिंसा-निषेध का संकेत किया गया है। शास्त्रकार का तात्पर्य यह है कि पृथ्वीकायादि जीवों से सम्बन्धित कोई भी ऐसी क्रिया न करनी-करानी चाहिए, जिससे उनका वध हो। सद्भिक्षु : श्रमणचर्या में सदा जागरूक
५२६. चत्तारि वमे सया कसाए,
धुवजोगी य हवेज बुद्धवयणे । अहणे निजाय-रूव-रयए,
गिहिजोगं परिवज्जए जे, स भिक्खू ॥ ६॥ ५२७. सम्मदिट्ठी सया अमूढे,
अस्थि हु नाणे तवे संजमे य । तवसा धुणई पुराण-पावगं,
मण-वय-काय-सुसंवुडे जे, स भिक्खू ॥७॥ ४. पडियायई-प्रत्यापिबति, प्रत्यादत्ते-दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. ४७९ ५. (क) जधा खग्ग-परसु-छुरिगादि-सत्थमणुधारं छेदगं तथा समंततो दहणरूवं । पंचासवदाराणि इंदियाणि ताणि आसवा चेव तानि संवरे ।'
-अगस्त्यचूर्णि (ख) पंचाश्रवसंवतश्च द्रव्यतो पंचेन्द्रियसंवतश्च ।
-हारि. वृत्ति, पत्र २६५ (ग) सेवते महाव्रतानि ।
-हारि. वृत्ति, पत्र २६५ (घ) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. ४८७ (ङ) अनिलेन = अनिलहेतुना चेलकर्णादिना ।
—हारि. वृत्ति, पत्र २६५ ६. (क) 'पुढवी चित्तमंतमक्खाया इत्यादि पाठ ।'
-दशवै. अ.४ (ख) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. ४८५-४८६ (ग) सचित्तग्गहणेण सव्वस्स पत्तेय-साहारणस्स सभेदस्स वणप्फइकायस्स गहणं कयं, तं सचित्तं नो आहारेज्जा ।
-जिनदासचूर्णि, पृ. ३४१