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दसमं अज्झयणं : स-भिक्खु दसवां अध्ययन : स-भिक्षु
सद्भिक्षु : षट्कायरक्षक एवं पंचमहाव्रती आदि सद्गुणसम्पन्न
५२१. निखम्ममाणाय+ बुद्धवयणे,
निच्चं चित्तसमाहिओ भवेज्जा । इत्थीण वसं न यावि गच्छे,
वंतं नोx पडियावियति जे, स भिक्खू ॥ १॥ ५२२. पुढविं न खणे, न खणावए,
सीओदगं न पिए, न पियावए । अगणिसत्थं जहा सुनिसियं,
तं न जले, न जलावए जे, स भिक्खू ॥ २॥ ५२३. अनिलेण न वीए न वीयावए,
हरियाणि न छिंदे, न छिंदावए । बीयाणि सया विवज्जयंतो,
सच्चित्तं नाऽऽहारए जे, स भिक्खू ॥ ३॥ ५२४. वहणं तस-थावराण होइ,
पुढवि-तण-कट्ठ-निस्सियाणं । तम्हा उद्देसियं न भुंजे,
नो वि पए, न पयावए जे, स भिक्खू ॥ ४॥ ५२५. रोइय
नायपुत्तवयणं, अत्तसमे= मन्नेज्ज छप्पिकाए । पंच य फासे महव्वयाइं,
पंचासवसंवरए जे, स भिक्खू ॥ ५॥ [५२१] जो तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा से निष्क्रमण कर (प्रव्रजित होकर) निर्ग्रन्थ-प्रवचन (सर्वज्ञ-वचन) में सदा समाहितचित्त रहता है, जो स्त्रियों के वशीभूत नहीं होता, जो वमन किये (त्यागे) हुए (विषयभोगों) को पुनः नहीं सेवन करता, वह सद्भिक्षु होता है ॥१॥ पाठान्तर- + आणाइ, आणाय । * हविज्जा x पडिआयइ = अत्तसमं ।