Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shayyambhavsuri, Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 426
________________ नवम अध्ययन : विनयसमाधि ३४३ विवेचन–श्रुतसमाधि के सूत्र—प्रस्तुत दो सूत्रों (५१३-५१४) में शास्त्र अध्ययन करने के चार महत्त्वपूर्ण उद्देश्य बताते हुए श्रुतसमाधि के चार सूत्रों का निरूपण किया गया है। शास्त्राध्ययन के चार प्रयोजन—(१) शास्त्रों का प्रतिदिन अध्ययन करते रहने से सैद्धान्तिक ज्ञान तथा आचार-व्यवहार का ज्ञान परिपक्व और अस्खलित हो जाता है। शास्त्रीय अध्ययन के बिना साधु-साध्वीगण जैनधर्म के सिद्धान्त, तत्त्वज्ञान और आचार-व्यवहार की बातें भलीभांति समझ नहीं सकते। बल्कि कभी-कभी शास्त्रज्ञान की अज्ञता के कारण भौतिक सुख-सुविधावादी पुस्तकें पढ़-सुन कर स्वयं विपरीत मार्ग पर चल पड़ते हैं और दूसरों को भी उसी उन्मार्ग पर ले जाते हैं। (२) शास्त्र-अध्ययन के बिना साधक का चित्त इधर-उधर विषयवासना की बातें सुनकर चंचल हो उठता है, परन्तु शास्त्रीय अध्ययन से उसका चित्त अपने ध्येय में एकाग्र हो जाता है। वह इधर-उधर भटकता नहीं। (३) शास्त्रीय अध्ययन करने से ही साधु-साध्वी अपने स्वधर्म में, आत्मिक गुणों में, अहिंसा-सत्यादि धर्मों में स्थिर रह सकते हैं। आकस्मिक विपत्ति, भय या प्रलोभन अथवा प्रतिष्ठा आदि का लोभ आने पर उनका चित्त स्वधर्म और धैर्य से च्युत हो जाता है, वह पापवृत्ति की ओर झुक जाते हैं। (४) अध्ययन न करने वाला जब स्वयं स्वधर्म से भ्रष्ट-पतित हो जाता है, अनेक क्रियाकाण्ड करते हुए भी धर्म में स्थिर नहीं रहता, तब वह दूसरों को धर्म में कैसे स्थिर कर सकता है ? किन्तु जो स्वाध्यायशील होता है, वह ज्ञानबल से स्वयं स्वधर्म में स्थिर होता है, इसलिए धर्म से डिगते हुए अन्य साधकों को भी वह उसमें स्थिर कर देता है। इन चार कारणों से साधु-साध्वीगण अनेक प्रकार के शास्त्रों का अध्ययन करके श्रुतसमाधि में लीन हो जाते हैं। फलितार्थ यह है कि साधु-साध्वी को इन्हीं शुभ उद्देश्यों को लेकर शास्त्रों का अध्ययन करना चाहिए, प्रसिद्धि, पद-प्रतिष्ठा, प्रशंसा या अन्य किसी भौतिक स्वार्थसिद्धि के उद्देश्य से नहीं। तपःसमाधि के चार प्रकार ५१५. चउब्विहा खलु तवसमाही भवइ । तं जहा—नो इहलोगट्ठयाए पतवमहिद्वेज्जा १, नो परलोगट्टयाए तवमहिढेज्जा २, नो कित्ति-वण्ण-सह-सिलोगट्ठयाए तवमहिढेन्जा ३, नऽन्नत्थ निज्जरट्ठयाए तवमहिढेजा चउत्थं पयं भवइ ४ ॥ ९॥ ... ५१६. भवइ य एत्थ सिलोगो विविहगुण-तवोरए य निच्चं भवइ निरासए निन्जरट्ठिए । तवसा धुणइ पुराणपावगं, जुत्तो सया तवसमाहिए ॥१०॥ [५१५] तपः समाधि चार प्रकार की होती है। यथा (१) इहलोक (वर्तमान जीवन के भौतिक लाभ या तुच्छ विषयभोगों की वाञ्छा) के प्रयोजन से तप नहीं करना चाहिए। (२) परलोक (पारलौकिक भौतिक सुखों या भोगासक्ति-विषयक लाभों) के लिए तप नहीं करना चाहिए। (३) कीर्ति, वर्ण, शब्द और श्लोक के लिए तप नहीं करना चाहिए। ४. दशवै. (आचार्यश्री आत्मारामजी महाराज) पृ. ९४३-९४४ पाठान्तर- तवमहिट्ठिज्जा ।* इत्थ ।

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