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नवम अध्ययन : विनयसमाधि
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अध्यापक कलादि शिक्षण में उन्हें दृढ़ करते व सन्मार्ग पर लाते थे। शिक्षणार्थी भी शिक्षक का अपने पर महान् उपकार समझ कर उस दण्ड को सविनय स्वीकारता था।
'ललितेंदिया' आदि पदों के विशेषार्थ ललितेंदिया ललितेन्द्रिय-जिनकी इन्द्रियां सुख से लालित (लाड़-प्यार में पली हुई) होती हैं, अथवा जिनकी इन्द्रियां रमणीय (ललित) या क्रीड़ाशील होती हैं, वे।नियच्छंतिप्राप्त करते हैं। सक्कारेंति नमसंति-सत्कार करते हैं, नमस्कार करते हैं, गुरुजन के आने पर उठना, हाथ जोड़ना आदि नमस्कार कहलाता है और उन्हें भोजन-वस्त्रादि से सम्मानित करना सत्कार कहलाता है। नमंसति के बदले अगस्त्यचूर्णि में 'समणेति' पाठ है, जिसका अर्थ है-स्तुतिवचन, चरणस्पर्श आदि करते हैं। तुट्ठा निद्देसवत्तिणोसन्तुष्ट होकर उनके निर्देशों (आदेशों) का पालन करते हैं।" गुरु-विनय करने की विधि
४८५. नीयं सेजं* गइं ठाणं, नीयं च आसणाणि य ।
नीयं च पाए वंदेजा, नीयं कुज्जा य अंजलिं ॥ १७॥ ४८६. संघट्टइत्ता काएणं, तहा उवहिणामवि ।
'खमेह अवराहं मे' वएज 'न पुणो' त्ति य ॥ १८॥ ४८७. दुग्गओ वा पओएणं, चोइओ वहई रहं ।
एवं दुब्बुद्धि किच्चाणं वुत्तो वुत्तो पकुव्वई ॥ १९॥ x[ आलवंते लवंते वा न निसिज्जाइ पडिस्सुणे ।
मुत्तूणं आसणं धीरो, सुस्सूसाए पडिस्सुणे ॥] ४८८. कालं छंदोवयारं च पडिलेहित्ताण हेउहि ।
तेण तेण उवाएणं, तं तं संपडिवायए ॥ २०॥ __[४८५] (साधु आचार्य से) नीची शय्या करे, नीची गति करे, नीचे स्थान में खड़ा रहे, नीचा आसन करे तथा नीचा होकर (सम्यक् प्रकार से विनत होकर आचार्यश्री के) चरणों में वन्दन करे और नीचा होकर अंजलि करे (हाथ जोड़ कर नमस्कार करे) ॥१७॥
[४८६] (कदाचित् असावधानी से गुरुदेव या आचार्य के) शरीर (चरण आदि शरीर के अवयवों) का अथवा
९. तत्थ निगलादीर्हि बंधं पावेंति, वेत्तासयादिहि य वधं घोरं पावेंति, तओ तेहिं बंधेहिं वधेहि य परितावो सुदारुणो भवइ त्ति,
अहवा परितावो निठुरचोयण-तज्जियस्स जो मण-संतावो सो परितावो भण्णइ । —जिनदासचूर्णि, पृ. ३१३-३१४ (क) लालितेंदिया वा सुहेहिं,लकारस्स ह्रस्सादेसो । ललिताणि नाडगातिसुक्खसमुदिताणि इंदियाणि जेसिं रायपुत्तप्पभीतीण • ते ललितेंदिया । सक्कारो भोजणाच्छादणादि संपादणओ भवइ । थुतिवयण-पादोवफरिसं समयक्करणादीहि य समाणेति।
-अगस्त्यचूर्णि (ख) नमसणा अब्भुट्ठाणंजलिपग्गहादी ।
-जिनदासचूर्णि, पृ. १४३ पाठान्तर- * सिजं । 'न पुण' त्ति । अधिकपाठ-x इस निशान वाली गाथा कई प्रतियों में मिलती है।
–सं.