________________
३२८
दशवैकालिकसूत्र (उनके) उपकरणों का भी स्पर्श (संघट्टा) हो जाए तो (तत्काल उनसे) कहे (भगवन्!) मेरा अपराध क्षमा करें, फिर ऐसा नहीं होगा ॥१८॥
[४८७] जिस प्रकार दुष्ट बैल (अयोग्य गलिया बैल) चाबुक से (बार-बार) प्रेरित किये जाने पर (ही) रथ को वहन करता है, उसी प्रकार दुर्बुद्धि शिष्य (भी) आचार्यों (गुरुओं) के बार-बार कहने पर (कार्य) करता है ॥१९॥
गुरु के एक बार बुलाने पर अथवा बार-बार बुलाने पर बुद्धिमान् शिष्य (उनकी बात सुन कर अपने) आसन पर से ही उत्तर न दे, (किन्तु शीघ्र ही) आसन छोड़ कर शुश्रूषा के साथ (उनकी बात सुन कर समुचित रूप से) स्वीकार करे॥] ___ [४८८] (शीतादि) काल को, गुरु के अभिप्राय (छन्द) को और (सेवा करने के) उपचारों (विधियों) को तथा देश आदि को (तर्क-वितर्करूप) हेतुओं से भलीभांति जानकर उस-उस (तदनुकूल). उपाय से उस-उस योग्य कार्य को सम्पादित (पूरा) करे ॥२०॥
विवेचन सर्वक्रियाओं में गुरुओं के प्रति नम्रभाव : विनय का प्रथम पाठ प्रस्तुत चार गाथाओं (४८५ से ४८८ तक) में गुरुओं के प्रति लोकोत्तर उपचारविनय की विधि बताई गई है। ४८७वीं गाथा में दुर्विनीत शिष्य की दुष्ट बैल से उपमा देकर उसकी वृत्ति का परिचय दिया गया है।
'दुग्गओ' आदि पदों के विशेषार्थ दुग्गओ-दुर्गवो दुष्ट-गलिया बैल। किच्चाणं-कृत्यानां कृत्य का अर्थ वन्दनीय या पूज्य है। आचार्य, उपाध्यायादि पूज्यवर वन्द्य गुरुजन कृत्य कहलाते हैं। किच्चाई' पाठान्तर है, वहां अर्थ होगा—आचार्यादि के अभीष्ट कृत्य कार्य। 'नीयं सेजं' आदि पदों की व्याख्या—नीयं सेज्जं आचार्य या गुरु की शय्या से अपनी शय्या (बिस्तर) नीचे स्थान में करना। गई–नीची गति करे, अर्थात् साधु आचार्य या गुरु के आगे या पीठ पीछे न चले, न ही अतिदूर और अतिनिकट चले। अतिनिकट चलने से धूल उड़ कर आचार्य पर लगती है और अतिदूर चलने, जल्दी आगे चलने से प्रत्यनीकता या आशातना होती है। ठाणं नीचे स्थान में खड़ा रहे । आचार्य खड़े हों, उनसे नीचे स्थान में खड़ा रहे। उनके आगे या पार्श्वभाग में सट कर खड़ा न हो। नीयं च आसणाणि : दो अर्थ—(१) आचार्य के आसन (पट्टा, चौकी आदि) से अपना आसन नीचा करे, (२) आचार्य से अपना आसन लघुतर करे।नीयं च पाए वंदेज्जा नीचा होकर आचार्य के चरणों में वन्दना करे। आचार्य आसन पर बैठे हों तो शिष्य नीचे (निम्न) भूभाग पर खड़ा हो, फिर भी खड़ा-खड़ा ही वन्दना न करके सिर से चरणस्पर्श कर सके उतना झुक कर वन्दना करे। नीयं कुजा य अंजलि नीचा होकर अंजलि करे—करबद्ध हो। अर्थात् — नमस्कार करने के लिए सीधा खड़ा-खड़ा हाथ जोड़ कर न रह जाए, किन्तु सिर झुका कर करबद्ध होकर नमस्कार करे।१२
११. (क) दुग्गओ-दुर्गवः दुष्टबलीवर्द इत्यर्थः ।
(ख) कृत्यानामाचार्यादीनां वन्दनीय-पूजनीयानामित्यर्थः । कृत्यानि वा-तदभिरुचितकार्याणि । —हा. वृ., पृ. २५०
(ग) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. ४४६ १२. (क) नीचां 'शय्यां' संस्तारकलक्षणामाचार्यशय्यायाः सकाशात् कुर्यादिति योगः । नीचां गतिमाचार्यगतेः, तत्पृष्ठतो
नातिदोण नातिद्रुतं यायादित्यर्थः । नीचं स्थानमाचार्यस्थानात्, यत्राचार्य आस्ते तस्मानीचतरे स्थाने स्थातव्यमिति भावः । नीचानि वा लघुतराणि । नीचं च सम्यगवनतोत्तमांगः सन् पादावाचार्यसत्कौ वन्देत, नावज्ञया । नीचं नम्रकायं कुर्यात्-संपादयेच्चाञ्जलिं, न तु स्थाणुवत् स्तब्ध एवेति ।
-हारि. वृत्ति, पत्र २५०