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दशवकालिकसूत्र
प्रथम उपमा रात्रि के व्यतीत होने पर प्रभात के समय देदीप्यमान सूर्य उदयाचल पर उदय होकर समग्र भरतखण्ड को प्रकाशित कर देता है, सोते हुए लोगों को जगाकर अपने-अपने कार्यों में उत्साहपूर्वक लगा देता है। उसी प्रकार श्रुत, (आगमज्ञान) से, शील (परद्रोहविरतिरूप संयम) से तथा (तर्कणारूप) प्रज्ञा से सम्पन्न आचार्य स्पष्ट उपदेश द्वारा जड़-चेतन पदार्थों के भावों को प्रकाशित करते हैं और शिष्यों को प्रबोधित कर आत्मशुद्धि के कार्य में पूर्ण उत्साह के साथ जुटा देते हैं। द्वितीय उपमा देवलोक में सभी देवों के बीच रत्नासनासीन इन्द्र सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार मनुष्यलोक में छोटे-बड़े सभी साधुओं के बीच पट्टे पर विराजमान संघनायक आचार्य सुशोभित होते हैं। तृतीय उपमा जिस प्रकार कार्तिकपूर्णिमा या शरपूर्णिमा की विमल रात्रि में मेघमुक्त निर्मल आकाश में नक्षत्र
और तारागण से घिरा हुआ चन्द्रमा सुशोभित होता है, वह अपनी अतिशुभ्र किरणों द्वारा अन्धकाराच्छन्न वस्तुओं को प्रकाशित करता है, दर्शकों के चित्त को आह्लादित करता है, इसी प्रकार गणाधिपति आचार्य भी साधुओं के बीच विराजमान होते हुए दर्शकों के चित्त को आह्लादित करते हैं तथा विशुद्ध श्रुतज्ञान द्वारा गूढ भावों को प्रकाशित करते
गुरु की आराधना का निर्देश और फल
४६७. महागरा आयरिया महेसी समाहिजोगे सुय-सील-बुद्धिए ।
संपाविउकामे अणुत्तराई आराहए तोसए धम्मकामी ॥ १६॥ ४६८. सोच्चाण मेहावि सुभासियाइं सुस्सूसए आयरिएऽप्पमत्तो । आराहइत्ताण गुणे अणेगे, से पावई सिद्धिमणुत्तरं ॥ ९७॥
त्ति बेमि ॥ ॥विणयसमाहीए पढमो उद्देसो समत्तो ॥ [४६७] अनुत्तर (सर्वोत्कृष्ट ज्ञानादि गुणरत्नों) की सम्प्राप्ति का इच्छुक तथा धर्मकामी (निर्जराधर्माभिलाषी) साधु (ज्ञानादि रत्नों के) महान् आकर (खान), समाधियोग तथा श्रुत, शील और प्रज्ञा से सम्पन्न महर्षि आचार्यों की आराधना करे तथा उनको (विनयभक्ति से सदा) प्रसन्न रखे ॥ १६ ॥
[४६८] मेधावी साधु (पूर्वोक्त) सुभाषित वचनों को सुनकर अप्रमत्त रहता हुआ आचार्य की शुश्रूषा करे। इस प्रकार वह अनेक गुणों की आराधना करके अनुत्तर (सर्वोत्तम) सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त करता है ॥१७॥
—ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन आचार्यों की आराधना की विधि और फलश्रुति प्रस्तुत दो गाथाओं (४६७-४६८) में महागुणसम्पन्न आचार्यों की आराधना साधक को क्यों और कैसे करनी चाहिए? यह बताकर उक्त आराधना के महाफल का प्रतिपादन किया गया है।
महागरा० आदि : व्याख्या प्रस्तुत पंक्ति में आचार्यों की विशिष्टगुणसम्पन्नता का उल्लेख किया गया है। यहां आचार्यों के छह विशेषण प्रयुक्त हैं—(१) महागरा : महाकर अर्थात् —आचार्य ज्ञानादि भावरत्नों के महान् १३. दशवैकालिक. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ८५८-८६०