Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shayyambhavsuri, Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 402
________________ नवम अध्ययन : विनयसमाधि ३१९ लज्जा, दया आदि विशोधिस्थान क्यों?—कल्याणभागी साधक के लिए लज्जा आदि आत्मा की विशुद्धि के स्थान इसलिए हैं कि लज्जा अर्थात् —अकरणीय या अपवाद का भय रहता है तो व्यक्ति पापकर्म करने से रुक जाता है, प्राणियों के प्रति दया के कारण भी हिंसा आदि में प्रवृत्त नहीं होता, १७ प्रकार के संयम से जीवों की रक्षा करता है, आत्मभावों में रमणरूप ब्रह्मचर्य से परभाव या विभाव में प्रवृत्त होने से रुक जाता है। अतः ये सब कर्ममल को दूर करके आत्मा को विशुद्ध बनाने के कारण हैं। जे मे सययमणुसासयंति—इन (आत्मविशुद्धिकर गुणों) की गुरु मुझे सतत शिक्षा देते हैं, या जो गुरु मुझे सदैव हितशिक्षा देते हैं। अनुशास्ता (गुरु) की इच्छा शिष्य को सदैव योग्य बनाने की होती है, इसलिए अनुशासन करने (शिक्षा देने) वाले गुरुओं की सदैव पूजा विनयभक्ति करनी चाहिए। गुरु (आचार्य) की महिमा ४६५. जहा निसंते तवणऽच्चिमाली पभासई केवलभारहं तु । एवाऽऽयरियो सुय-सील-बुद्धिए विरायई सुरमझे व इंदो ॥ १४॥ ४६६. जहा ससी कोमुइजोगजुत्ते नक्खत्ततारागणपरिवुडप्पा । खे सोहई विमले अब्भमुक्के, एवं गणी सोहइ भिक्खुमाझे ॥१५॥ [४६५] जैसे रात्रि के अन्त (दिवस के प्रारम्भ) में प्रदीप्त होता हुआ (जाज्वल्यमान) सूर्य (अपनी किरणों से) सम्पूर्ण भारत (भारतवर्ष भरतक्षेत्र) को प्रकाशित करता है, वैसे ही आचार्य श्रुत, शील और प्रज्ञा से (विश्व के समस्त जड़-चैतन्य पदार्थों के) भावों को प्रकाशित करते हैं तथा जिस प्रकार देवों के बीच इन्द्र सुशोभित होता है, उसी प्रकार आचार्य भी साधुओं के मध्य में सुशोभित होते हैं ॥१४॥ [४६६] जैसे मेघों से मुक्त अत्यन्त निर्मल आकाश में कौमुदी के योग से युक्त, नक्षत्र और तारागण से परिवृत चन्द्रमा सुशोभित होता है, उसी प्रकार गणी (आचार्य) भी भिक्षुओं के बीच सुशोभित होते हैं ॥१५॥ विवेचन साधुगण के मध्य आचार्य की शोभा प्रस्तुत दो गाथाओं में आचार्य अतीव पूजनीय हैं, यह तथ्य तीन उपमाओं द्वारा बतलाया गया है। निसंते-निशान्ते : भावार्थ -रात्रि का अन्त (व्यतीत) होने पर प्रभात के समय। कौमुदीयोगयुक्त कार्तिकी पूर्णिमा का चन्द्रमा।१२ ९. (ग) पंचंगीएण वंदणिएण तं जहा—जाणुदुर्ग भूमीए निवडिण, हत्थदुएण भूमीए अवटुंमिय, ततो सिरं पंचमं निवाएजा। -जिनदासचूर्णि, पृ. ३०६ १०. (क) अकरणिज्ज-संकणं लज्जा । -अ. चू., पृ. २०८ (ख) अपवादभयं लज्जा। -जिनदासचूर्णि, पृ. ३०६ (ग) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ.८५६ ११. (क) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. ४२९ (ख) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ८५६ १२. कौमुदीयोगयुक्तः कार्तिकपौर्णमास्यामुदितः । -हारि. वृत्ति, पत्र २४६

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