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नवम अध्ययन :विनयसमाधि
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निअच्छई जाइपहं—एकेन्द्रियादि योनियों में चिरकाल तक भ्रमण करता है, अथवा जाति यानी जन्म, वध यानी मरण —अर्थात् चिरकाल तक जन्म-मरण को पाता है, या जातिमार्ग अर्थात् संसार में आवागमन—परिभ्रमण करता है। गुरु (आचार्य) के प्रति विविध रूपों में विनय का प्रयोग ४६२. जहाऽऽहियग्गी जलणं नमसे नाणाहुईमंतपयाभिसित्तं ।
एवाऽऽयरियं उवचिट्ठएज्जा अणंतणाणोवगओ वि संतो ॥११॥ ४६३. जस्संतिए धम्मपयाइं सिक्खे, तस्संतिए वेणइयं पउंजे ।
सक्कारए सिरसा पंजलीओ कायग्गिरा भो ! मणसा य निच्चं ॥ १२॥ ४६४. लज्जा दया संजम बंभचेरं कल्लाणभागिस्स विसोहिठाणं ।
जे मे गुरू सययमणुसासयंति, ते हं गुरुं संययं पूययामि ॥ १३॥ [४६२] जिस प्रकार आहिताग्नि (अग्निपूजक) ब्राह्मण नाना प्रकार की आहुतियों और मंत्रपदों से अभिषिक्त की हुई अग्नि को नमस्कार करता है, उसी प्रकार शिष्य अनन्तज्ञान-सम्पन्न हो जाने पर भी आचार्य की विनयपूर्वक सेवा-भक्ति करे ॥ ११॥
[४६३] जिसके पास धर्म-(शास्त्रों के) पदों का शिक्षण ले, हे शिष्य! उसके प्रति विनय-(भक्ति) का प्रयोग करो। सिर से नमन करके, हाथों को जोड़ कर तथा काया, वाणी और मन से सदैव सत्कार करो ॥ १२ ॥ ___ [४६४] कल्याणभागी (साधु) के लिए लज्जा, दया, संयम और ब्रह्मचर्य, ये विशोधि-(कर्म-मल-निवारण करने) के स्थान हैं। अतः जो गुरु मुझे (इस सद्गुणों की) निरन्तर शिक्षा देते हैं, उनकी मैं सतत पूजा करूं, (शिष्य सदा यह भाव रखे।) ॥ १३॥
विवेचन–प्रत्येक परिस्थिति में विनय करना अनिवार्य प्रस्तुत तीन गाथाओं (४६२ से ४६४ तक) में ज्ञान के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचे हुए शिष्य को भी गुरुदेव की विनय-भक्ति, सेवा, पूजा, सिर से नमन, वाणी, काया और मन से सत्कार और हाथ जोड़कर वन्दन आदि करने का युक्तिपूर्वक विधान किया गया है।
विनय की अनिवार्यता यहां तीन गाथाओं में तीन उक्तियों से विनय की अनिवार्यता प्रतिपादित की गई है—(१) जैसे अग्निहोत्री बनने के लिए ब्राह्मण विविध वेदमंत्रों और घृत-मधु-प्रक्षेपादि आहुतियों से अभिषिक्त एवं अपने घर में स्थापित अग्नि की नमस्कार आदि से पूजाभक्ति करता है, उसी प्रकार अनन्तज्ञानसम्पन्न (केवल
६. (क) क्षयोपशमवैचित्र्यात् तंत्रयुक्त्याऽऽलोचनाऽसमर्थः सत्प्रज्ञाविकल इति । जातिपन्थानं-द्वीन्द्रियादि जातिमार्गम् ।।
-हारि. वृत्ति, पत्र २४४ (ख) 'पगइ'त्ति सूत्र–प्रकृत्या स्वभावेन, कर्मवैचित्र्यात् मंदा अपि सद्बुद्धिरहिता अपि एके–केचन वयोवृद्धा अपि ।
-हारि.वृत्ति, पत्र २४४ (ग) स्वभावो-पगती, तीए मंदा वि णातिवायाला उवसंता। "जाती समुप्पत्ती वधो-मरणं, जन्ममरणाणि, अथवा जातिपथं जातिमग्गं-संसारः।"
-अगस्त्यचूर्णि, पृ. २०७