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दशवैकालिकसूत्र
आशातना : स्वरूप, प्रकार, कारण तथा दुष्परिणाम आशातना का अर्थ सब ओर से विनाश करना या कदर्थना करना है। गुरु की अवहेलना, अवज्ञा या लघुता करने का प्रयत्न आशातना है। गुरु की आशातना अपने ही सम्यग्ज्ञान-सम्यग्दर्शन की आशातना है। आशातना शब्द के विभिन्न अर्थ विभिन्न स्थलों में मिलते हैं -गुरु, आचार्य आदि के प्रतिकूल आचरण, उद्दण्डता, उद्धतता, विनयमर्यादारहित व्यवहार, गुरुवचन न मानना आदि। गुरुजनों की अवज्ञा अविनीत शिष्य दो प्रकार से करते हैं सूया और असूया से। सूयारीति वह है, जो ऊपर से तो स्तुतिरूप मालूम होती है परन्तु उसके गर्भ में निन्दारूप विषाक्त नदी बहती है। यथा—'गुरुजी विद्या में तो बृहस्पति से भी श्रेष्ठतर हैं, सभी शास्त्रों में इनकी अबाधगति है, इनके अनुभवों का तो कहना ही क्या ? पूर्ण वयोवृद्ध जो हैं। ये हमसे सभी प्रकार से बड़े हैं' आदि-आदि। असूयारीति वह है, जिसमें गुरु की प्रत्यक्ष रूप में निन्दा की जाती है। यथा—'तुम्हें क्या आता है! तुम से तो हम ही अच्छे, जो थोड़ा-बहुत शास्त्रीयज्ञान रखते हैं। अवस्था भी कितनी छोटी है! हमें तो इन से अध्ययन करते लजा आती है,' आदि।
(१) इस प्रकार जो गुरु की हीलना—अवज्ञा करते हैं, वे गुरु की आशातना करते हैं, वे मिथ्यात्व को प्राप्त करते हैं।
(२) कई साधु वयोवृद्ध होते हुए भी ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम की कमी के कारण स्वभाव से ही अल्पप्रज्ञाशील होते हैं, इसके विपरीत कई साधु अल्पवयस्क होते हुए भी श्रुत और प्रज्ञा से सम्पन्न होते हैं। किन्तु ज्ञान में भले ही न्यूनाधिक हों, आचारवान् और सद्गुणों में सुदृढ़ ऐसे गुरुओं की अवज्ञा (आशातना) सद्गुणों को उसी तरह भस्म कर देती है, जिस प्रकार अग्नि क्षणमात्र में इन्धन के विशाल ढेर को भस्म कर देती है। ___(३) सर्प के छोटे-से बच्चे को छेड़ने वाला अपना अहित कर बैठता है। उसी प्रकार आचार्य को अल्पवयस्क समझ कर जो उनकी आशातना करता है, वह एकेन्द्रियादि जातियों में जन्म-मरण करता रहता है। कदाचित् मंत्रादिबल से अग्नि पैर आदि को न जलाए, मंत्रादिबल से वश किया सांप भी कदाचित् डस न सके, मंत्रादिप्रयोग से तीव्र विष भी कदाचित् न मारे, किन्तु गुरु की की हुई आशातना के अशुभ फल से कभी छुटकारा नहीं हो सकता। उसके अशुभ फल भोगे बिना कोई भी व्यक्ति मुक्त नहीं हो सकता।
(४) गुरु की आशातना पर्वत से अपना सिर टकराना है, सोये हुए सिंह को छेड़कर जगाना है, या भाले की नोंक पर हथेली से प्रहार करना है। पर्वत से टकराने वाले का सिर चकनाचूर हो जाता है, सिंह को जगाने वाला स्वयं काल-कवलित हो जाता है और भाले की नोक पर प्रहार करने वाले के अपने हाथ-पैर से रक्तधारा बहने लगती है। इसी प्रकार गुरु की आशातना करने वाला अविवेकी अपना ही अहित करता है। इहलोक-परलोक दोनों में अतीव दुःख पाता है। इसलिए अनाबाध सुखरूप मोक्ष के अभिलाषी साधक को सदैव गुरु की सेवाशुश्रूषा एवं भक्ति करके उन्हें प्रसन्न रखने का प्रयत्न करना चाहिए। यह इन गाथाओं का तात्पर्य है।
पगईए मंदा-क्षयोपशम की विचित्रता के कारण कई स्वभाव से शास्त्रीययुक्तिपूर्वक व्याख्या करने में असमर्थ होते हैं, कई स्वभाव से मंद-अल्पप्रज्ञ होते हुए भी अतिवाचाल नहीं होते, उपशान्त होते हैं।
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(क) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. ४३१ (ख) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ.८३६-८३७ दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ.८३७ से ८५० ।