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दशवकालिकसूत्र ___ अत्तगवेसिस्स : आत्मगवेषी जिसने आत्मा के हित का अन्वेषण कर लिया, उसने आत्मा का अन्वेषण कर लिया। आत्मगवेषणा आत्मा के हिताहित के सन्दर्भ में की जाती है। दुर्गतिगमन, जन्ममरणरूप, संसारपरिभ्रमण आदि आत्मा के लिए अहित हैं तथा अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, स्वभावरमण आदि आत्मा के लिए हित हैं। जो अहितों से आत्मा को मुक्त करना और हितों में आत्मा को व्याप्त करना चाहता है, वही आत्मगवेषी है।६४
विसं तालउडं जहा तालपुट विष का अर्थ है ताल (हथेली) संपुटित (बंद) हो, उतने समय में जो विष भक्षणकर्ता को मार डाले ऐसा तत्काल प्राणनाशक विष।६५
___ अंग-पच्चगं-संठाणं अंग-प्रत्यंग-संस्थान अंग (हाथ, पैर आदि शरीर के मुख्य अवयव), प्रत्यंग (आंख, दांत आदि शरीर के गौण अवयव) और संस्थान (शरीर की आकृति, सौष्ठव, डीलडौल सौन्दर्य या रूप) एवं अंग एवं प्रत्यंगों का संस्थान–विन्यासंविशेष।
पोग्गलाणं परिणाम पुद्गलों का परिणमन–इन्द्रियों के पांचों विषय पुद्गलों के परिणाम हैं। परिणाम का अर्थ है वर्तमान पर्याय को छोड़ कर दूसरी पर्याय में जाना—अवस्थान्तरित होना। शब्दादि इन्द्रिय-विषय मनोज्ञ और अमनोज्ञ दोनों रूप में परिवर्तित होते रहते हैं। जो आज मनोज्ञ या सुन्दर हैं, वे कालान्तर में अमनोज्ञ या असुन्दर हो सकते हैं, जो अमनोज्ञ या असुन्दर हैं, वे मनोज्ञ या सुन्दर या विशेष अमनोज्ञ हो सकते हैं। यही इनका अनित्य रूप है, जिसका चिन्तन करके ब्रह्मचारी को विषय के प्रति राग-द्वेष से दूर रहना चाहिए। प्रेम और राग एकार्थक हैं।"
कामरागविवड्डणं : तात्पर्य स्त्रियों के अंग-प्रत्यंग, हावभाव, सौन्दर्य, चालढाल, अंगचेष्टा आदि को गौर से देखने से कामराग की वृद्धि होती है।८ ६३. (ज) गिहिसंथवं–गृहिपरिचयं न कुर्यात् । तत्स्नेहादिदोषसंभवात् । कुर्यात् साधुभिः संस्तवं-परिचयं, कल्याणमित्रयोगेन, कुशलपक्षवृद्धिभावतः ।
-हारि. वृत्ति, पत्र २३७ (झ) विग्गहो सरीरं भण्णइ । आह–इत्थीओ भयंति भाणियव्वे ता किमत्थं विग्गहग्गहणं कयं? भण्णति, न केवलं सज्जीवइत्थिसमीवाओ भयं किन्तु ववगतजीवाए वि सरीरं, ततो वि भयं भवई । अओ विग्गहगहणं कयं ति ।
-जिनदासचूर्णि, पृ. २९१ (ब) दशवै. (संतबालजी), पृ. ११५ (ट) अवि सद्दी संभावणे वट्टइ । किं संभावयति ? जहा—जइ हत्थादिविच्छन्ना वि वाससयजीवी दूरओ परिवजणिज्जा, किं पुण जा अपलिच्छिन्ना वायत्था वा ? एयं संभावयति ।
-जिनदासचूर्णि, पृ. २९१ ६४. (क) अत्तगवेसिणा आत्महितान्वेषणपरस्य ।
-हारि. वृत्ति, पत्र २३७ (ख) अप्पहितगवेसणेण अप्पा गविट्ठो भवति ।
-अ. चू., पृ. १९९ (ग) ....अहवा मरणभयभीतस्स अत्तणो उवायगणवेसितेण अत्ता सुठु वा गवेसिणो, ज एएहितो अप्पाणं विमोएई ।
-जिनदासचूर्णि, पृ. २९२ ६५. तालपुडं नाम जेणंतरेण ताला संपुडिजंति तेणंतरेण मारयतीति तालपुडं । जहा जीवियाकंखिणो न तालपुटविसभक्खणं सुहावहं भवति, तहा धम्मकामिणो नो विभूसाईणि सुहावहाणि भवंतीत्ति ।
-जिनदासचूर्णि, पृ. २९२ ६६. अगस्त्यचूर्णि, पृ. २९२ ६७. (क) जिनदासचूर्णि, पृ. २९२-२९३
(ख) पेमंति वा रागोत्ति वा एगट्ठा । दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ.८१२