Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shayyambhavsuri, Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 392
________________ अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि ३०९ तीन योगों में निष्ठावान्–तपयोग, संयमयोग, स्वाध्याययोग में निष्ठापूर्वक प्रवृत्त होने वाला ही स्वपररक्षा में समर्थ हो सकता है। तपोयोग का अर्थ हैबारह प्रकार के तप में मन-वचन-काया के योग से प्रवृत्त रहना। संयमयोग का अर्थ है—जीवकायसंयम, इन्द्रियसंयम, मनःसंयम आदि १७ प्रकार के संयम के निरन्तर समाचरण और स्वाध्याययोग का अर्थ है-वाचना आदि पांच अंगों वाले स्वाध्याय में रत रहना। एक प्रश्न : समाधान तप का ग्रहण करने से १२ प्रकार के तपों में स्वाध्याय का समावेश हो ही जाता है, फिर स्वाध्याय को पृथक् ग्रहण करने का क्या कारण है ? इसका समाधान अगस्त्यचूर्णि में इस प्रकार किया गया है स्वाध्याय १२ प्रकार के तपों में मुख्य तप है, इस मान्यता को परिपुष्ट करने हेतु स्वाध्याय का पृथक् ग्रहण किया गया है। अहिट्ठए-अहिट्ठिए दो रूप,दो अर्थ (१) अधिष्ठाता-निष्ठावान्, किन्तु 'अहिट्ठए' का यहां क्रियापरकरूप 'अधिष्ठेत्' मानकर अर्थ किया है—प्रवृत्त (जुटा) रहता है। (२) अधिष्ठित–निष्ठापूर्वक स्थित हो जाता है। समत्तमाउहे : समस्तायुध : अर्थ समग्र आयुधों (पंचविध शस्त्रास्त्रों) से सुसज्जित। मलं-पापमल या कर्ममल। दुक्खसहे शारीरिक-मानसिक दुःखों को सहने वाला, परीषहविजेता। अममे अकिंचणे-अमम का अर्थ होता है जिसके ममता—मेरापन नहीं होता, जबकि अकिंचन का अर्थ होता है जो हिरण्य आदि द्रव्यकिंचन और मिथ्यात्वादि भावकिंचन से रहित होता है। ___ अब्भपुडावगमे : अभ्रपुट से वियुक्त होने पर बादल आदि का दूर होना, या हिम, रज, तुषार, कुहासा आदि सब अभ्रपुटों से वियुक्त होना। ॥अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि समाप्त ॥ ७२. (ग) अहवा अलं परेसिं, परसद्दो एत्थ सत्तूसु वट्टति, अलं सद्दो विधारणे । सो अलं परेसिं धारणसमत्थो सत्तूण। -अगस्त्यचूर्णि, पृ. २०० ७३. (क) सत्तरस विधं संजमजोगं । -अ.चू., पृ. २०० (ख) संयमयोगं—पृथिव्यादिविषयं संयमव्यापारं । (ग) इह च तपोऽभिधानात् तद्ग्रहणेऽपि स्वाध्याययोगस्य प्राधान्यख्यापनार्थ भेदेनाऽभिधानम् । —हारि. वृ., पत्र २३८ (घ) बारसविहम्मि वि तवे, सब्भिंतरबाहिरे कुसलदिटे । न वि अत्थि, न वि अहोही, सज्झायसमं तवोकम्मं ॥ -कल्प भाष्य. गाथा ११६९ ७४. (क) अधिष्ठाता—तपः प्रभृतीनां कर्ता । -हारि. वृत्ति पत्र २३८ (ख) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. ६८२ (क) पंचवि आउधाणि सुविदिताणि जस्स णो समत्तमायुधो । (ख) स्योमलो पावमुच्यते । दुक्खं सारीर-माणसं सहतीति दुक्खसहो । णिमम्मते अममे । अब्भस्स पुडं बलाहतादि, अब्भपुडस्स अवगमो-हिम-रजो-तुसार-धूमिकादीण वि अवगमो । -अ.चू. पृ. २०१ (ग) दुक्खसह: परिषहजेता ।। -हारि. वृत्ति, पत्र २३८

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