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अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि
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सीईभूएण अप्पणा : विशेषार्थ-शीतीभूत का अर्थ है—क्रोधादि अग्नि के शान्त हो जाने से उपशान्त । प्रव्रज्याकालिक श्रद्धा अन्त तक सुरक्षित रखे ..
४४८. जाए सद्धाए निक्खंतो परियायठाणमुत्तमं ।
तमेव अणुपालेजा गुणे आयरियसम्मए ॥ ६०॥ [४४८] जिस (वैराग्यभावपूर्ण) श्रद्धा से घर (अथवा संसार) से निकला और उत्तम पर्यायस्थान (प्रव्रज्यास्थान) को स्वीकार किया, उसी (त्यागवैराग्यपूर्ण) श्रद्धा से आचार्य-सम्मत गुणों (मूल-गुणों) का अनुपालन करे ॥६०॥
विवेचन प्रस्तुत गाथा में साधु के आचार-सर्वस्व-मूलगुणों-उत्तरगुणों का पालन उसी श्रद्धा से हो जिस श्रद्धा से (उत्कृष्ट वैराग्यभाव) से प्रव्रज्या अंगीकार की है, यह प्रतिपादन किया गया है।
अणुपालेज्जा निरन्तर पालन करे। गुणे उत्तम गुणों में मूलगुणों और उत्तरगुणों का समावेश होता है। जिसका विस्तृत वर्णन पूर्व में किया गया
सद्धाए : श्रद्धा से व्युत्पत्ति के अनुसार श्रद्धा का अर्थ होता है श्रत्-सत्य को जो धारण करती है, वह श्रद्धा है।x निष्कर्ष है-त्याग, वैराग्य आदि (साधुजीवन के परमसत्यों को मनोभाव से धारण करना श्रद्धा है।) 'जाए' श्रद्धा का विशेषण है। अर्थ होता है जिस (प्रव्रजित होने के समय की) श्रद्धा से। आचारांगसूत्र में भी ऐसा ही पाठ मिलता है। आचार-प्रणिधि का फल
४४९. तवं चिमं संजमजोगयं च सज्झायजोगं च सया अहिट्ठए ।
सूरे व सेणाइ+ समत्तमाउहे अलमप्पणो होई अलं परेसिं ॥ ६१॥ ४५०. सज्झाय-सज्झाणरयस्स ताइणो, अपावभावस्स तवे रयस्स ।
विसुभाइ जं से- मलं पुरेकडं समीरियं रुप्पमलं व जोइणा ॥ ६२॥
—हारि. वृत्ति, पत्र २३८
६९. शीतीभूतेन क्रोधाद्यग्न्यपमात् प्रशान्तेन । x अत् सत्यं दधातीति श्रद्धा। ७०. (क) दशवै. (आचार्यश्री आत्मारामजी महाराज)(ख) दशवै. (संतबालजी), पृ. ११७
(ग) सद्धा धम्मे आयरो । (घ) सद्धा परिणामो भवई । (ङ) श्रद्ध्या-प्रधानगुणस्वीकरणरूपया । (च) तं सद्धं पव्वज्जासमकालिणिं अणुपालेज्जा । (छ) तमेव परियायट्ठाणमुत्तमं ।
(ज) आचारांग १/३५ पाठान्तर-+ सेणाए। *जंसि ।
-अ. चू., पृ. २०० -जिनदासचूर्णि, पृ. २९३ —हारि.वृत्ति, पत्र २३८
-अ.चू., पृ. २०० -जिनदासचूर्णि, पृ. २९३