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अष्टम अध्ययन: आचार-प्रणिधि
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इसके अतिरिक्त जिन कुण्डों में पानी स्वाभाविक रूप से गर्म होता है, जैसे राजगृह आदि अनेक स्थलों में ऐसे कुण्ड हैं जिनका पानी बहुत गर्म होता है उसमें चावल आदि भी पक जाते हैं पर वह गर्म प्रासुक नहीं होगा। उस पानी में उष्णयोनिक जीव होते हैं, जिससे उन कुण्डों का उष्ण पानी श्रमण के लिए ग्राह्य नहीं होता, यह प्रकट करने के लिए यह विशेषण प्रयुक्त किया गया है।
उदओल्लं-उदकाई -मुनि के शरीर को भीगने के तीन प्रसंग आते हैं—(१) जब वे नदी पार करते हैं, (२) विहार करते समय वर्षा आ जाती है, अथवा (३) भिक्षाटन आदि के समय वर्षा आ जाती है। पुंछे' एवं 'संलिहे' में अन्तर—वस्त्र, तृण आदि से पोंछना प्रोंछन और हाथ, उंगली आदि से पोंछना संलेखन कहलाता है। बाहिरं पोग्गलं बाह्य पुद्गल इसका अर्थ है—अपने शरीर से अतिरिक्त गर्म जल या गर्म दूध, खिचड़ी आदि। तणरुक्खं तृण' शब्द से यहां सभी प्रकार के घासों तथा रुक्ख शब्द से खजूर, ताड़, नारियल, सुपारी आदि सभी प्रकार के वृक्षों एवं गुच्छ, गुल्म आदि का ग्रहण किया गया है। गहणेसु वृक्षों से आच्छन्न प्रदेशों में अर्थात् वननिकुंजों में। इनमें हलन-चलन करने से वृक्ष की शाखा आदि का स्पर्श होने की संभावना रहती है, इसलिए यहां ठहरने का निषेध किया गया है। उदगम्मि : उदक पर उदक शब्द के दो अर्थ होते हैं—जल और उदक नामक वनस्पति। प्रज्ञापना में अनन्तकायिक वनस्पति के प्रकरण में 'उदक' नामक वनस्पति का निरूपण है। जल में होने वाली वनस्पति के कारण इसका नाम उदक है। यह अनन्तकायिक वनस्पति है। उत्तिंग यहां उत्तिंग का.अर्थ सर्पच्छत्र या कुकुरमुत्ता है, जो बरसात के दिनों में होता है। ण चिढ़े इसका खड़ा न रहे अर्थ होता है। किन्तु यहां यह न बैठे, न सोए आदि क्रियाओं का संग्राहक है। विविहं—विविध अर्थात् हीन, मध्यम और उत्कृष्ट, अथवा कर्मपरतन्त्रता के कारण नरकादि गतियों में उत्पन्न विभिन्न प्रकार के जीव।
पृथ्वी के भेदन-विलेखन तथा शद्ध पृथ्वी पर बैठने आदि का निषेध क्यों?—पृथ्वी के भेदन और विलेखन आदि करने से पृथ्वी सचित्त हो तो उसकी और तदाश्रित जीवों की तथा अचित्त हो तो भी उसके आश्रित जीवों की हिंसा होती है, इसलिए इसका निषेध है। शुद्ध पृथ्वी के दो अर्थ हैं—(१) शस्त्र से अनुपहत (सचित्त) और ४. (क) नदीमुत्तीर्णो भिक्षाप्रविष्टो वा वृष्टिहतः । उदकामुदकबिन्दुचितमात्मनः काय शरीरं स्निग्धं वा ।
-हारि. टीका, प. २२८ (ख) तत्थ पुंछणं वत्थेहिं तणादीहिं वा भवइ, संलिहणं जं पाणिणा संलिहिऊण णिच्छीडेइ, एवमादि। (ग) सरीरवतिरित्तं वा बाहिरं पोग्गलं बाहिरपोग्गलग्गहणेणं उसिणोदगादीणं गहणं । जिनदासचूर्णि, प. २७७ (घ) तृणानि दर्भादीनि, वृक्षाः कदम्बादयः । (ङ) गहनेषु वननिकुंजेषु न तिष्ठेत् संघट्टनादिदोषप्रसंगात् ।
-हारि. वृत्ति, पत्र २२९ (च) तत्थ उदगं नाम अणंतवणप्फई।....अहवा उदगगहणेण उदगस्स गहणं करेंति, कम्हा? जेण उदएण वणप्फइकाओ अत्थि ।
-जिनदासचूर्णि, पृ. २७७ (छ) जलरुहा अणेगबिहा पण्णत्ता, तं-उदए, अवए, पणए...।
-प्रज्ञापना १/४३, पृ. १०५ (ज) उत्तिंगः-सर्पच्छवादिः ।
—हारि. वृत्ति, पत्र २२९ (झ) ण चिट्टे णिसीदणादि सव्वं ण चेएजा। सव्वभूताणि तसकायाधिकारोत्ति सव्वतसा । विविहमणेगागारं हीणमझाधिकभावेण ।
—अ. चू., पृ. १८६ (अ) विविधं जगत्-कर्मपरतंत्रं नरकादिगतिरूपम् ।
-हारि. टीका, पत्र २२९