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दशवैकालिकसूत्र
आचरण में नहीं लाते। परन्तु गुरु या आचार्य द्वारा दी गई शिक्षा क्रियान्वित न हो तो उसका यथार्थ लाभ नहीं होता। इसीलिए यहां स्पष्ट कहा गया है.२ "तं परिगिज्झ वायाए कम्मुणा उववायए।' भोगों से निवृत्त होकर मोक्षमार्ग में पुरुषार्थ करे-गाथा ४२२ का फलितार्थ यही है कि साधक के सामने भोग और मोक्ष दोनों हैं । भोग अस्थिर हैं, जबकि मोक्ष स्थिर और यह निश्चित है कि जीवन अनित्य है, कब समाप्त हो जाएगा, कुछ भी पता नहीं। इस स्वल्पतर आयुष्य वाले जीवन को भोगों से सर्वथा मोड़ कर सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमय मोक्षमार्ग में पुरुषार्थ करना चाहिए, क्योंकि मनुष्य जीवन बार-बार नहीं मिलता। अतः फिर ऐसा अवसर और यह जन्म मिलना दुर्लभ है।३३
बल आदि देख कर आत्मा को धर्माचरणपुरुषार्थ में लगाए—मनोबल, तनबल, श्रद्धा, स्वास्थ्य तथा क्षेत्र काल आदि का सम्यक् विचार करने के पश्चात् यदि ये सब ठीक स्थिति में हों तो धर्माचरण में इन्हें लगाने में क्षण भर भी विलम्ब नहीं करना चाहिए। क्योंकि ये सब साधन या निमित्त बार-बार नहीं मिलते, जब साधक को ये अनायास ही प्राप्त हुए हैं तो अपनी भक्ति और क्षमता का उपयोग धर्माचरण में करना चाहिए।"
फिर धर्माचरण होना कठिन है शास्त्रकार ४२३वीं गाथा में चेतावनी के स्वर में कहते हैं कि शरीर धर्म का सर्वोत्तम साधन है, वह स्वस्थ हो तभी सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्ध धर्म का पालन हो सकता है। बचपन, बुढ़ापा, बीमारी या इन्द्रियक्षीणता में उसका पालन होना दुष्कर है, अतः युवावस्था एवं स्वस्थता में ही धर्माचरण कर लेना चाहिए। यदि अनुकूल परिस्थिति में धर्माचरण न किया तो फिर मोक्षमार्ग पर चलना दुष्कर होगा। अतः धर्माचरण में इसी क्षण से पुरुषार्थ करो।५ कषाय से हानि और इनके त्याग की प्रेरणा
४२४. कोहं माणं च मायं च लोभं च पाववड्डणं ।
वमे चत्तारि दोसे उ, इच्छंतो हियमप्पणो ॥ ३६॥ ४२५. कोहो पीई पणासेइ, माणो विणयनासणो । __माया मित्ताणि नासेइ, लोभो सव्वविणासणो ॥ ३७॥ ४२६. उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे । ___मायं चऽज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे ॥ ३८॥ ४२७. कोहो य माणो य अणिग्गहीया, माया य लोभो य पवड्डमाणा ।
___चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स ॥ ३९॥ [४२४] क्रोध, मान, माया और लोभ (ये चारों) पाप को बढ़ाने वाले हैं। (अतः) आत्मा का हित चाहने वाला (साधक) इन चारों दोषों का अवश्यमेव वमन (परित्याग) कर दे ॥३६॥ ३२. दशवै. (संतबालजी), पृ. १०९ ३३. भोगेभ्यो-बन्धैकहेतुभ्यः ।
-हारि. वृत्ति, पत्र ३३३ ३४. (क) वही, पत्र ७८३
(ख) दशवै. (संतबालजी), पृ. १०९ ३५. दशवै. (आचार्य आत्मारामजी महाराज), पृ.७८५