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अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि
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करने वाला।
सुसंतुट्टे सुसन्तुष्ट रूखा-सूखा, वह भी थोड़ा-सा जैसा भी, जितना भी मिल जाता है, उसी में पूर्ण सन्तुष्ट रहने वाला। सुहरे : सुभर-थोड़े से आहार से पेट भर लेने वाला या निर्वाह कर लेने वाला या अल्पाहार से तृप्त होने वाला। अप्पिच्छे—अल्पेच्छ—जिसके आहार की जितनी मात्रा हो, उससे कम खाने वाला अल्पेच्छ (अल्प इच्छा वाला)। रूक्षवृत्ति, सुसन्तुष्ट, अल्पेच्छ और सुभर में कार्य-कारण भाव है। ....आसुरत्तं—आसुरत्व क्रोधभाव। असुर क्रोध प्रधान होते हैं, इसलिए आसुर शब्द क्रोध का वाचक हो गया। अक्रोध की शिक्षा के लिए आलम्बन के रूप में अगस्त्यचूर्णि में एक गाथा उद्धृत है, जिसका भावार्थ है-गाली देना, मारना, पीटना ये कार्य बालजनों के लिए सुलभ हैं। कोई आदमी भिक्षु को गाली दे तो सोचे-पीटा तो नहीं, पीटे तो सोचे—मारा तो नहीं, मारे तो सोचे मुझे धर्मभ्रष्ट तो नहीं किया। इस प्रकार क्रोधभाव पर विजय पाए।२ क्षुधा, तृषा आदि परीषहों को समभाव से सहने का उपदेश
४१५. खुहं पिवासं दुस्सेजं सीउण्हं अरई भ्य ।
अहियासे अव्वहिओ देहे दुक्खं महाफलं ॥ २७॥ [४१५] क्षुधा, पिपासा (प्यासा), दुःशय्या (विषम भूमि पर शयन या अच्छा निवासस्थान न होना), शीत, उष्ण, अरति और भय को (मुनि) अव्यथित (क्षुब्ध न) होकर सहन करे, (क्योंकि) देह में (कर्मजनित उत्पन्न हुए) दुःख (कष्ट) को (समभाव से सहन करना) महाफलरूप होता है ॥ २७॥
विवेचन देहदुःख : महाफलरूप : आशय व्यथित हुए (झुंझलाए क्षुब्ध हुए) बिना समभाव से अथवा अदीनभाव से असार शरीर से सम्बन्धित क्षुधादि परीषहों (कष्टों दुःखों) को सहने से मोक्षरूप महाफल की प्राप्ति होती है। कष्टों के समय मुनि को इस प्रकार धैर्य धारण करना चाहिए यह शरीर असार है, इसका क्या मोह? एक न एक दिन यह छूटेगा ही, इससे जो कुछ संवर-निर्जरारूप धर्म कमा लिया जाए, वही अच्छा है। दूसरी दृष्टि
२२. (क) सन्निधी-गुलघयतिल्लादीणं दव्वाणं परिवासणं ति ।
-जिनदासचूर्णि, पृ. २८२ (ख) जगणिस्सितो—इति ण एक्कं कुलं गामं वा णिस्सितो, जणपदमेव ।
(ग) अगस्त्य चूर्णि, पृ. १९०-१९१ . (घ) मुधाजीवी-मुधा अमुल्लेण तथा जीवति मुधाजीवी, जहा-पढमपिंडेसणाए । -अ. चू., पृ. १९० मुधाजीवी नाम जं जातिकुलादीहिं आजीवणविसेसेहिं परं न जीवति ।
-जिनदासचूर्णि, पृ. १९० (ङ) असंबद्धे—णाम जहा पुक्खरपत्तं तोएणं न संबज्झइ एवं गिहीहिं समं असंबद्धेण भवियव्वं ति । जगनिस्सिए णाम तत्थ पत्ताणि लभिस्सामो त्ति काऊण गिहत्थाण णिस्साए विहरेज्जा, न तेहिं समं कुंटलाइं करेजा ।।
-जिनदासचूर्णि, पृ. २८२ (च) जगनिश्रितः—चराचर-संरक्षणप्रतिबद्धः । अप्पिच्छो न्यूनोदरतयाऽऽहारपरित्यागी । सुभरः स्यादल्पेच्छत्वादेव दुर्भिक्षादाविति फलं प्रत्येकं वा स्यात् ।
—हारि. वृत्ति, पत्र २३१ (छ) आसुरतं असुराणं एस विसेसेणं ति आसुरो कोहो, तब्भावो आसुरतं ।
(ज) अगस्त्य चूर्णि, पृ. १९१ पाठान्तर-* देह-दुक्खं ।