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दशवैकालिकसूत्र से देखें तो देह का दुःख एक प्रकार से इन्द्रियों का संयम है। इन्द्रियों का असंयम, बाह्य दृष्टि से देखते हुए सुखरूप प्रतीत होता है, परन्तु परिणाम में एकान्त दुःख का ही कारण है, जबकि संयम पहलेपहल इन्द्रियों के अध्यास के कारण दुःखरूप प्रतीत होता है, लेकिन परिणाम में एकान्त सुख का ही कारण है।२३ रात्रिभोजन का सर्वथा निषेध
४१६. अत्थंगयम्मि आइच्चे, पुरत्था य अणुग्गए । .
आहारमाइयं सव्वं मणसा वि न पत्थए ॥ २८॥ [४१६] सूर्य के अस्त हो जाने पर और (पुनः प्रातःकाल) पूर्व में सूर्य उदय न हो जाए तब तक सब प्रकार के आहारादि पदार्थों (के सेवन) की मन से भी इच्छा न करे ॥ २८॥
विवेचन रात्रिभोजन की मन में भी अभिलाषा न करे : आशय—चौथे अध्ययन में रात्रिभोजनविरमण को भगवान् ने छठा व्रत बताया है। इसलिए शास्त्रकार ने 'मणसा वि न पत्थए' कह कर इस व्रत का दृढ़ता से पालन करने का निर्देश किया है। क्योंकि रात्रिभोजनविरमण व्रत के भंग से अहिंसा महाव्रत दूषित हो जाता है। एक महाव्रत के दूषित हो जाने से अन्य महाव्रतों के भी दूषित हो जाने की सम्भावना है।
रात्रिभोजन का त्याग बौद्धधर्म तथा वैदिकधर्म के पुराण (मार्कण्डेयपुराण आदि) में बताया है। आरोग्य के नियम की दृष्टि से भी रात्रिभोजन वर्ण्य है। आहारमाइयं आहारादि सभी पदार्थ।
___ 'अत्थंगयम्मि' आदि पदों का अर्थ अस्त का अर्थ है—अदृश्य होना, छिप जाना। पुरत्थाए पुरस्तातपूर्व दिशा में अथवा प्रात:काल। क्रोध-लोभ-मान-मद-माया-प्रमादादि का निषेध
४१७. अतिंतिणे अचवले अप्पभासी मियासणे ।
हवेज उयरे दंते, थोवं लधुं न खिंसए ॥ २९॥ ४१८. न बाहिरं परिभवे अत्ताणं न समुक्कसे । .
सुयलाभे न मज्जेजा, जच्चा तवसि बुद्धिए ॥ ३०॥ ४१९. से जाणमजाणं वा कटु आहम्मियं पयं ।
संवरे खिप्पमप्पाणं बीयं तं न समायरे ॥ ३१॥ ४२०. अणायारं परक्कम्म नेव गृहे, न निण्हवे ।
सुई सया वियडभावे असंसत्ते जिइंदिए ॥ ३२॥
२३. दशवै. पत्राकार (आचार्यश्री आत्मारामजी महाराज), पृ.७७० २४. (क) दशवै. पत्राकार (आचार्यश्री आत्मारामजी महाराज), पृ.७७२ (ख) 'अस्तंगत आदित्ये—अस्तपर्वतं प्राप्ते, अदर्शनीभूते वा । पुरस्ताच्चानुद्गते—प्रत्यूषस्यनुदिते ।'
—हारि. वृत्ति, पत्र २३२ (ग) पुरत्था य–पुव्वाए दिसाए ।
-अमस्त्यचूर्णि, पृ. १९२