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अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि
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३९४. सीओदगं न सेवेजा सिला वुटुं हिमाणि य ।
उसिणोदगं तत्तफासुयं पडिगाहेज संजए ॥६॥ ३९५. उदओल्लं अप्पणो कार्य नेव पुंछे न संलिहे ।
समुप्पेह तहाभूयं नो णं संघट्टए मुणी ॥ ७॥ ३९६. इंगालं अगणिं अच्चिं अलायं वा सजोइयं ।
न उंजेजा न घट्टेजा, नो णं निव्वावए मुणी ॥८॥ ३९७. तालियंटेण पत्तेण साहाविहुयणेण वा ।
न वीएज अप्पणो कायं, बाहिरं वा पि पोग्गलं ॥९॥ ३९८. तणरुक्खं न छिंदेजा फलं मूलं व कस्सइ ।
आमगं विविहं बीयं मणसा वि न पत्थए ॥ १०॥ ३९९. गहणेसु न चिडेजा बीएसु हरिएसु वा । ___उदगम्मि तहा निच्चं उत्तिंग-पणगेसु वा ॥ ११॥ ४००. तसे पाणे न हिंसेज्जा वाया अदुव कम्मुणा ।
उवरओ सव्वभूएसु पासेज विविहं जगं ॥ १२॥ [३९०] पृथ्वी (-काय), अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय तथा तृण, वृक्ष और बीज (रूप वनस्पतिकाय) [अथवा बीजपर्यन्त तृण, वृक्ष] तथा त्रस प्राणी, ये जीव हैं, ऐसा महर्षि (महावीर) ने कहा है ॥२॥
[३९१] (साधु या साध्वी को) उन (पूर्वोक्त स्थावर-त्रस जीवों) के प्रति मन, वचन और काया से सदा अहिंसामय व्यापारपूर्वक ही रहना चाहिए। इस प्रकार (अहिंसकवृत्ति से रहने वाला) संयत (संयमी) होता है ॥३॥
[३९२] सुसमाहित संयमी (साधु या साध्वी) तीन करण तीन योग से (सचित्त) पृथ्वी, भित्ति (दरार), (सचित्त) शिला अथवा मिट्टी के ढेले का स्वयं भेदन न करे और न उसे कुरेदे, (दूसरों से भेदन न कराए, न ही कुरेदाए तथा अन्य कोई इनका भेदन करता हो या कुरेदता हो तो उसका अनुमोदन मन-वचन-काया से न करे) ॥४॥
[३९३] (साधु या साध्वी) शुद्ध (अशस्त्रपरिणत-सचित्त) पृथ्वी और सचित रज से संसृष्ट (भरे हुए) आसन पर न बैठे। (यदि बैठना हो तो) जिसकी वह भूमि हो, उससे आज्ञा (अवग्रह) मांग कर तथा उसका प्रमार्जन करके (उस अचित्त भूमि पर) बैठे ॥५॥ ___[३९४] संयमी (साधु या साध्वी) शीत (सचित्त) उदक (जल), ओले, वर्षा के जल और हिम (बर्फ) का सेवन न करे। (आवश्यकता पड़ने पर अच्छी तरह) तपा हुआ (तत) गर्म जल तथा प्रासुक (वर्णादिपरिणत धोवन) जल ही ग्रहण करे (और सेवन करे) ॥६॥
[३९५] मुनि सचित्त जल से भीगे हुए अपने शरीर को न तो पोंछे और न ही (हाथों से) मले। तथाभूत (सचित्त जल से भीगे) शरीर को देखकर, उसका (जरा भी) स्पर्श (संघट्टा) न करे ॥७॥